काशी नाथ मन्दिरके निकट है। उक्त शोतला मन्दिरमें सप्त- भगिनीको मूर्ति है। कालभैरवसे अनतिदूर दण्डपाणिका मन्दिर है। क शौखण्डके मतमें-"हरिकेश नामक एक यक्ष थे। वाल्यकालले ही उनके हृदयमें शिवभक्ति उद्दीपित हुयी। वह सोते समय सर्वदा महादेवको विभूति देखते थे। बालककाल ही वह टह परित्याग कर वाराणसी गये और शि तपस्या में प्रवृत्त हुये । बहु काल पीछे महादेवने सन्तुष्ट हो उन्हें यह वर दिया था-'हे यक्ष ! तुम इसारे त्यन्त प्रिय हो । तुम इस क्षेत्रके दण्ड- घर हो । पाजसे तुम इस काशीके दुष्ट शासक और शिष्टपालक बन कर अवस्थान करो । तुम दण्डपाणिके नामसे प्रसिद्ध होगे । हमारे संभ्रम और उद्धम नामक गणय सर्वदा तुम्हारे अनुगामी होकर रहेंगे। काशीवासियों का अन्तिमकाल उपस्थित होनेसे तुम उनके गले में सुनील रेखा, हस्तमें सपं वलय, भालमें सोचन, परिधानमें कृत्तिवास, मस्तक, पिङ्गलवर्ण जटा, सर्वाङ्ग में विभूति, कपालमें चन्द्रकला और वाइनार्थ उषस प्रदान करोगे। तुम्ही काशीवासियोंक पत्रदाता, प्राणदाता, ज्ञानदाता और मोक्षदाता होगे।' तदवधि दण्डपाणि महादेव पाटेशसे सम्यक्प वारा बसी शासन वारते हैं # कायोमें दण्डपाणिको पूजा न करनेसे किसीको कैसे सुख मिलता है ?" (काशेषण २ प.) दण्डपाणिको मूर्ति प्रायः ३ हस्त उच्च है । प्रति रवि और मङ्गलवारको यात्री दण्डपाणिको पूजा करते हैं। दण्डपाणि और भैरवनाथ मन्दिरके बीचोबीच नवग्रहका मन्दिर है। वहां रवि, सोम, मङ्गल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतुको मूर्ति पूजी जाती है। कालभैरवसे अनतिदूर कालोदक वा कालकूप है। उस तीर्थ में नान करनेसे पिळगणका सवार होता है। (काशीख २१) उमा कूप पुस भावसे प्रव- स्थित है कि मध्याह्नके समय सूयरश्मि ठीक उसके जन्न पर पड़ता है उस समय अनेक लोग अदृष्ट परीक्षार्थ कालकूप दर्शन करने जाते हैं। काशिवामियों विश्वासानुसार मध्यान काल जो व्यक्ति कूपके जन्में अपनी प्रतिमूर्ति देख नहीं सकता, वह ६ मासके मध्य निश्चय मरता है। कालादकके निकट ही महा- कास और पञ्च पाण्डवको मूर्ति है। कालोदकसे अनतिदूर वृक्षालेखरका वर्तमान मन्दिर है । काशीखण्ड के मतानुसार- दक्षिण देशके गन्दिवर्धन नामक ग्राममें वृद्धकाल राजा रहे। उन्होंने सहधर्मिणोके साथ काशी ना एक प्रासाद बनाया और उसमें शिवलिङ्ग स्थापन कराया । वही अनादि शिवलिङ्ग वृद्धकालेश्वर नामसे ख्यात है। हाकाले- खर महादेवको सेवा करनेसे दरिद्रता, उपसर्ग, रोग पाप किंवा पापजनित फलभोग निवारित होता है। (काशीख १७ प.) वृहकालखरका मन्दिर अति प्राचीन है ।* अनेकोंके मतानुसार काशी में आजकल जितने शिवा- लय देख पड़ते, उन सबसे उक्त मन्दिर पुरातन मन्दिर है। वृद्धकालेखरके मन्दिर मध्य दक्षेखर नामक स्व. सन्त्र शिवलिङ्ग विद्यमान है। उता मन्दिरको छोड दक्षिणभागसें 'अल्पमृतेश्वर शिवलिङ्ग है। भक्तके विश्वासानुसार अल्पमृतेश्वरलिङ्गः अल्पायु मानव को दीर्घायु प्रदान करता है। इससे विस्तर तीर्थयात्री उक्त लिङ्ग दर्शन पार अर्चन करने जाते है। किसो समय हरकालेखरके दक्षिण पुराण-प्रसिद्ध कत्तिवासेखरका मन्दिर था। काशौखण्डमें लिखा है- "महादेव द्वारा निहत होनेपर गजासुरका शरीर उक्त खानपर शिवलिङ्गरूपमें परिणत हुवा। शिवके गजा- सुरको कृत्ति अर्थात् चर्म परिधान करनेसे हा उक्त लिङ्ग कत्तिासेखर कहता है। वह लित काशीस्थ सकन सिङ्गमे श्रेष्ठ है । उत्तमरूपसे सप्तकोटि महारुद्रो जप करनेसे जो फन मिलता, काशीमें वत्तिासेश्वरको पूजा करनेसे वही प्राप्त हो सकता है। (काशेखण (प.) शिवपुरापमैं भौशाहकाभिरका नाम मिलता है। (शिवपुराण, जामसहिता ५.10) . बागौवासियोंके विश्वासानुसार कालभैरव ही पचक्रोयौ बारा- बसौभासनकर्ता वा कोतवाल।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६३९
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