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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६४३

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काशी "साहाय्यं प्राप्य गर्टियोदामस्य पद्ममू। .मन्दिर है । एक ही साथ कतार कतार इतने अधिक इयान दशभिः कायामश्वमेध: महामखेः।। भन्दिर काशो में अन्य किसी स्थान पर देख नहीं पड़ते। तीय दशानमेधाय' प्रथिनगतीतले ।...... दशाश्वमेधधाटके उत्तर मानमन्दिरबाटके निकट पुरा रुद्रसगे नाम तभी कलमोहय । दशाश्वमेधिकं पयाजा विधिपरियडात." दालभ्येश्वर, सोमेश्वर, विष्ण , गौतन्हा, बाराही देवी (काशीखण्ड ५९ ६८-६९) प्रभृतिके मन्दिर वन है। ब्रह्माने राजर्षि दिवोदासके सहायसे काशीमें दश वाराणमोसे पश्चिम नगरमामाके वाहर पिशाच- अश्वमेध यज किये थे। सदवधि उनके यन्न करनका मोचन ता है । वह एक प्राचीन म्यान है । कूर्म- स्थान दशाश्वमेधतीर्थ नामसे जगत्में विख्यात हुश। पुराणमें भी उसका उल्लेख है । (धर्ममार, ३२ । २) प्राय: पुराकानको उक्त तीथ रुद्रसरोवर कहाता था। ब्रह्माके काशीयात्री माव उक्त तीर्थंके दर्शनको जाते हैं। यविधि उसका नाम दशाश्वमेध पड़ गया। काशीमाहात्नामें कहा है:-किमो समय एक दशाश्वमेधमें ब्रह्मान दशाश्वमेधेश्वर नामक शिव- पिशाच वन्नपूर्वक काशी पहुंचा था। अपरापर देवता लिङ्ग स्थापन विाया था। उसकी गति रोक न सके । गेषको कानमैरवने युद्ध "तब सात्वा महाभागे भवन्ति नीरजा नराः। कर पिशाचका मस्तक विखण्ड कर डाला । फिर दशाश्वमेधानां फलं सत्र प्राप्रोति मानवः" । भैरवनाच पिशाचका मुण्ड ले विश्वेश्वरकै निकट उप- (मत्म्यपुगए, १८११) स्थित इथे । देहहान होते भी पियाचको जीवनशक्ति उस (दशाश्वमेध ) तीर्थ में नान करनेसे मानव वा वाक् शक्ति गयो न यो। उसने विश्वेश्वरसे प्रार्थना रोगशून्य होते और दश अश्वमेधका फल भोगते हैं। की कि वह काशीसे हटाया न जाय । पाशतोषने उस काशीखण्डमें लिखा है कि दशाश्वमेधतीर्थम की प्रार्थना,ग्राछ की। पिशारने अवशेषको फिर कहा केवल मात्र तीन पाहुति प्रदान करनेसे अग्निहोत्रयाग 'हे विश्वेश्वर श्राप अनुमति दें जिसमें गयायात्री का फल मिलता है । (काशीखए १८) विना मुझे प्रथम दर्शन किये गया यावा न कर सकें। प्रदापि दशाश्वमेधेश्वर और ब्रह्मेश्वर नामक विश्वेश्वरने वही अनुमति दे डानी । तदनुसार अनेक शिवमन्दिर बना है। काशीखण्ड के मतमें उक्त उभय यात्री प्रथम पिशाचमोचनका दर्शन कर पथात् गया लिङ्ग ब्रधान प्रतिष्ठित किये थे । प्रथम लिङ्गः कृष्ण जाते हैं । कालभैरवने उस तीर्थ में पिशाच का मुण्ड पाषाणमय और प्रायः ४ हाथ उच्च है । सम्मुख एक फेंका था। इससे उसका नाम पिशाचमोचन पड़ गया। हदाकार कृषभ मृति है । काशीमाहामा मता- वहां प्रतिवर्ष कई मेले होते हैं। उनमें 'नोटामया' नुसार दशाश्वमेधमें नान कर दशाश्वमेधेश्वरके दर्शन मेला प्रधान है। पिशाचमोचन घाट कुछ मौरावाद और कुछ गो- करने पर मानव समस्त पातकसे मुक्ति पाता है । ज्येष्ठ मासको प्रतिपद और दशहराको विस्तर तीर्थ- पानदास साधुके द्वारा पत्यरसे बंधाया गया । घाटका यात्री एकत्र होते है । कारोखण्डके मतानुसार उक्त दक्षिण प्रायः तीन शत वर्ष पर्व राजा शिवम्बर और उभय दिन दशाश्वमेधमें स्नान करनेसे आजन्मकत उत्तर अंश प्राय: शताधिक वर्ष पूर्व राजा मुरलीधरने बनवाया था। अथवा दशजन्मार्जित पाप कट जाता है। ब्रह्मेश्वरनिङ्ग दर्शन करनेमे भी मानव ब्रह्मनोक पाता है। पिशाचमोचनको पूर्व और दो मन्दिर हैं। उनमें: दशाश्वमेध-मन्दिरके निकट ही 'रुद्रसर' नामक एक मीराबाईका प्रतिष्ठत है। मन्दिरको चारो दिक तीर्थ है। काशीखण्डके कथनानुसार उक्त तीर्थ में स्नान प्रनक देवमूर्ति है। कहों शिव, कहों उन्होंके जश्वमें करनसे नमहयकृत पाय विनष्ट होता है। कहीं विष्णु, नमी, सूर्य, गणेश, पिशाचका छिद्र दशाश्वमेध-घाटमें दशहरेश्वर प्रमति पनेक देव- हनूमान् प्रतिको मूर्ति शोमा पाती है।