झण्डू ७५० कौट पानी में पीस कर प्रलेप लगाना चाहिये । सकल प्रकार हो जाता है। उससे कृष्णवण रक्त बहता है। फिर मण्डू क-विष, मेषशृङ्गी, वचा, विकर्णी, स्थनवेतम, वधिरता; चक्षुको प्राविलता और चक्षुद्दयझा दाह मनिष्ठा और वालकके प्रयोगसे नष्ट हो जाता है। होता है। उपमें प्रमून, हरिद्रा, नाकुचो और चक्र- विश्वम्भर कोटकै काटनेसे वचा, अम्वगन्धा. पोतवाघ्या मदको अभ्यङ्गा, पान, अञ्जन और नस्यरूपमे प्रयोग लका, खेतवाव्यालका, क्षुट्रचक्रमद और शालपर्णी करना चाहिये। प्रयोग करना चाहिये। अहिण्डुका कीटके दंशन खेतालूनाके दंशन करनेसे खेतवर्ण और करनेसे शिरीष, तगरपादुका, कुष्ठ, हरिट्रा, दारु- युक्त पिडका उत्पन्न होती हैं। दार, मूछी, वर, हरिद्रा, शान्तपर्णी, मुहपर्ण और माषपर्णो हितकर विसर्प, लेद और वेदना भी उठती है। उसपर चन्दन, कए मकाक काट खानेसे गत्रिकालको शौनन राना, एला, रेण का, नन्छ, प्रयोकत्वक, कुष्ठ पोर क्रियासमूह करना पड़ता है। कारण दिनको सूरिश्मि | चक्रमर्द-सकन्न ट्रय प्रत्येक १ भाग एवं वैष्णामूख द्वारा विष अधिक प्रकुपित होनेसे शीतल क्रियास २ भाग एकत्र प्रन्ने पाटिमें व्यवहार करना चाहिये। कोई फल नहीं मिलता । शूकवन्त (झांझा) के कपिला लताके काटनेसे ताम्रवर्ण एवं एकस्थान विषमें कच्चा सिन्धुवार, कुष्ठ और पपामार्ग प्रयोग स्थायो पिड़का, मस्तक भार, दाह, बन्धकार दर्शन करते हैं। अथवा कृष्णवलोककी मही भृङ्गाराज रसमें पौर भ्रम होता है। उसमें पाकाष्ठ, कुछ, एना, करन पीस कर प्रलेप चढ़ाना चाहिये । पिपीलिका, मक्षिका त्वक, पर्जुनत्वक, शालपर्णी, अर्क, अपामार्ग, पौर मशक दंशन पर वष्णुवल्लो ककी मट्टी गोमूत्र के | दूर्वा चौर वायो-मकस ट्रय हितकर है। साथ पीस कर प्रलेप देते हैं। प्रतिसूर्यक (गुहेरा.). पौतिकाके काटनेसे पिडका, वमि, चर एवं शून के टशन करने पर सर्पदंशनकी भांति चिकित्सा करना पाता और चक्षु रतवर्ण पड़ जाता है। उसपर कुटज- पड़ती है। त्वक, वेणामून, पद्मकेशर, एनकाय, पशोक, शिरीष, उग्रविष और मध्यविष वृश्चिकके दंशनमें मपंदंशन प्रपामार्ग, नहमोडा, कदम्ब और अर्जुनत्वक् उप- की भांति चिकित्सा कर्तव्य है। मन्द विष वृश्चिकके काट कारक है। रखावेसे पक्रतैल अथवा विदार्यादि गणोता ट्रय समूहके पानविपाक टंथनसे दष्ट स्थान पर रक्तवर्ण साथ मुसिद्ध उष्ण जन्नका सेक देना चाहिये। अथवा मण्डन (चकता), सर्वपकी भांति पिड़का, तालुशोष विषघ्न द्रव्यसमूहके पुलटिससे स्वेद लगा दष्ट स्थान और दाह होता है। उसपर पियंगु, वान्तक, काठ, वेणा- पर हरिद्रा, सैन्धव, विकट, शिरीषवीज और शिरोप मूल एवं अशोक अथवा शतपुष्या और अश्वत्य तथा वट. मुष्य के चूर्ण द्वारा घर्षण करते हैं। तुलसीको मञ्जरी. का अङ्गुर एकत्र प्रयोग करनेसे उपकार पहुंचता है। विनोरा और गोमूत्रके माथ पोसकर प्रलेप करनेसे मूबविपके स्पर्शसे स्पृष्टस्थान सड़ जाता कृष्ण एवं .मी. वृश्चिककै विषको शान्ति होती है। उक्त विष ईष रक्तवर्ण पिड़का परती और कास, वाम, वमन, मूर्छा, "दुष्ण गोमयका प्रलेप पोर खेद हितकर है। - ज्वर तथा दाह होता है । उमपर मन:चिन्ना, हरिताल, कुसुमपुष्य. तथा कोद्रव प्रत्येक १ भाग और यष्टिमधु, कुष्ठ, चन्दन, एनकाष्ठ पौर वेणामून गेमकर हरिद्रा २ भाग घृनमें मिला गुय देशमें धूप प्रदान मधुके साथ प्रलेप चढाना चाहिये। करनसे वृश्चिकविष सत्वर निवारित होता है। रतलूता काट खानेमे दटस्थानको चतुर्दिक रकवर्ण लूता (मकड़ी) के विभागानुसार प्रत्येक जातीय हो जाती हैं और पाण्डवर्ण की पिडका उठ पानी है। लूताविषमें पूर्वोक्त साधारण लक्षणको अपेक्षा अनेक फिर लोद और दाह भी होता है। उन पर वाना, विभिन्न लक्षण देख पड़ते हैं। चन्दन, वेणा मून एवं पद्म काष्ठ अथवा प्रजेन, चहमोडा त्रिमण्डन्ता लूताके दंशनादिसे दष्टस्थान विदीर्ण | तथा प्रामातकको त्वक का प्रलेप लगाया जाता है। -
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७४७
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