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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७४६

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कौट 982 । 1 खेतवर्ण, चित्रवर्ण, श्यामवर्ण, रक्षाभ, रतस्खेत. एकस्थानस्थायी महस निकना पाता है। मुख. रतोदर, नालोदर, पोतरत, नौलपोत, रमानोल, नीलशक्ल मर्शसे स्पष्टस्थान गलने लगता और उसका मधदेय एवं रतापिन्नवर्ण प्रभृति वर्ण युक्त और परिमाणमें एक कृष्णवर्ण तथा प्रान्तमाग रसवर्ण देख पड़ता पर्व, एक पर्वको अपेक्षा भी क्षुद्र अथवा दो पर्व हचिका रजः, मन एवं इन्द्रियके स्पर्शसे पक्कपिलु फलको भांति समूह महाविष तथा प्राणनाशक है । पूतिसर्यदेह पाण्डवर्ण स्फोटक उठता है। लुताका किसी प्रकार वा सर्पदष्ट व्यक्षिके देहसे उसका जन्म है। उसके काट विष-नक्षण एक हो वारमें समस्त प्रकाशित नहीं नेसे विषकी भांति विषवेगको प्रवृत्ति, स्फोट, भ्रम, होता। देशके पीछे पहले दिन अध्यक्लवर्ण और कण्ड दाह, चर और शरीरस्थ छिट्रपथमे रखनाव होनेपर विशिष्ट चञ्चल चकते उभरा करते हैं। दूसरे दिन इन प्राण छूट जाता है। मण्डलोंका मध्यभाग, निम्न और चतुर्दि का प्रान्त- सुश्रुतके मतमें-किसी समय राजा विश्वामित्रने भाग फूल उठना है। तीसरे दिन विवका लक्षण देख वशिष्ठको कामधेनु अपहरण की थी। उससे वह अत्यन्त पड़ता । चतुर्थ दिन शरोरस्य विष कुपित होता है। कुपित हुवे। उसी समय उनके लबाटदेशसे प्रति- पञ्चम दिन विषकोपसे रोगसमूह उभर पाता है। तेजस्वी खेदविन्दु मिकता था। वह छिन तपमें गिर षष्ठ दिन विष सर्वधरोरमें फेस वियेषरूपसे मर्मस्थान- पड़ा। उससे लता (मकाडी) मामक कीट उत्पन्न हुवा । समूहको पायय करता है। सप्तम दिन विषप्रकोप श्राकार, वर्ण पौर प्रकृतिभेदसे नानाविध लूमा केवल बहुत बढ़ जाता है। तीक्ष्ण या प्रचण्ड विष होनेसे थोड़ा प्रकारमें विभक्त किया गया है। सब प्रकारको | इसी दिन रोगीका पाप विमष्ट होता है। मध्यम लूताका विष भयानक है। उसमें पाठ प्रकारको लूता विषविशिष्ट लूताके दंशनमे सप्तम दिवस के पोछे पोर कष्टसाध्य और पाठ प्रकारको एकबारगो हो प्रसाध्य मन्द विषयुक्त लगाके दंशनमे एक पक्षकान मध्य निर्दिष्ट हुयो है। त्रिमण्डला, खेता, कपिला, पौसिका, मृत्यु, पा सकता है। भावविषा, मूवविषा, रता और कममा लूताका विष चिकिमा-उपविष कोटों के काटनेने सर्पदंशनको भांति कष्टसाध्य है। उसके दंशन करनेसे शिरोरोग, कण्डू, ही चिकित्सा करना पड़तो है। खेद, प्रलेप और जल. दष्टस्थान पर वेदना और वात भिक-रोग समूहको सेकादि उष्ण कर व्यवहार करना चाहिये। दष्टस्यान उत्पत्ति होती है । सौर्णिका, मानवर्णा मालिनी, पक यो सड़ जाने और मूर्छादि उपद्रव बद पानसे एपीपदी, वष्या, पम्निवर्ण, काकाण्डा और माला वमन विरचनादि संशोधन कार्य और विनाशक क्रिया- गुणा-आठ प्रकारको लताका विष पसाध्य है। उसके समुदायसे लाभ होता है । उ सकस उपटूवमें घिरौष, दंशन पर दष्टस्थानसे रन निकलता, दष्टस्यान सड़ता कुटकी, कुष्ठ, वचा, हरिट्रा, सैन्धवलवण, गथदुग्ध, और न्वर, दाइ, अतिसार प्रति विदोषजात रोग, मन्ना, वसा, गव्याहत, शण्डो, पिप्पली और देवदारुका विविध पिड़का, गावमें बड़ा बड़ा चकता और रखवणं पुलटिस बांधना चाहिये। अथवा प्रथम शालपर्णोचूर्ण प्रथवा श्यामवर्ण एवं मृदु चवच शोय युवा करता है। कर उसका स्वेद लगाना उचित है। किन्तु इधिक दंशनष्यतोत भी उक्त प्रकारको लुसाको साला, नखा. दंथनमें खेद पहितकर है। त्रिकण्टकके विषमें कुष्ठ, धात, दंष्ट्राघात, भूव, रजा, मन्त्र और इन्ट्रिय स्वयंसे मा अपक सिन्धुधार, वचा, विखमूल, विदकों, सुवटिका, विष-पोड़ित होना पड़ता है। लालाके विषसे कण्डू कन्जन, हरिद्रा और दारुहरिद्राका प्रले गदि हितकर एकस्थानस्थायौ, अल्पमूनकोष्ठ और अल्प वेदना होतो है। गलगोती ( सर्पविशेष) के विषमें कन्नड, हरिद्रा, है। नवाघातके विषसे शोथ, एवं कण्डू का वेग बढ़ता अपक्क सिन्धुशार, कुष्ठ पौर पलाशवीजसे उपकार होता पोर मनुष्य अकड़ रहता है। दंघातके विषसे दष्ट- है। शतपदो (कानाखजूरा) के विष पर कुश्म, नगर- स्थान उग्र, कठिन एवं विवण पड़ जाता और शरोरमें । पादुका, भोभानन, पनाह, हरिद्रा और दामहरिद्रा Vol. IV. 188