। वन्ती। ०५४ कौट-कौटभुक्-उभिद कोट (Eि. पु० ) तेल वगैरहका नीचे बैठा हुवा मैल । कर पीने के लिये उतर पड़ते हैं। उक्त रस गोंदको कीटक (सं० पु०) कीट संज्ञायां स्वार्थे वा कन् । कौट देखो। तरह चिपचिपा होता है। पतङ्ग एक वार बैठ जानेमे कोटगर्दभक (सं० पु.) सौम्यकीटविशेष, गदहला। फिर किसी क्रममें उड़ नहीं सकता। उसके पीछे उसके दंशन लमजन्य रोग उत्पन्न होते हैं। कामशः पत्नाण अपने पाप चारो. श्रोरसे सिकुड़ने 'कीटन्न (सं० पु०) कट जन्ति, कोट-हन्-ढक् । गन्धक, नगते हैं और क्षुद्र पतङ्ग उनसें जीता जागता भाबद्ध कौड़ोंकी मारनेवाली चीज। हो जाता है। परीक्षा द्वारा देखा गया है कि पतङ्ग कीटज ( सं० ली. ) कीटात् जायते, कोट-जन्-ड। उस रसमें फंस क्रमश: वनहीन होत होते जीवनसे हाथ १ रेशम, टसर, कोड़ेसे पैदा होनेवाली चीज । (त्रि०) धोता और अवशेषको उमीसमें गलकर मिना करता २ कोटजात, कीड़ेसे पैदा । ३ रेशमका बना हुवा। । पत्राणु इतने पैतन्यविशिष्ट है कि अपर किसी "पीएच राहवले व प्हन कोटजन्तथा।"भारत, २।५। २३) सूक्ष्म वा कोमल वस्तु, द्वारा पत्र स्पृष्ट होते ही वह वोटना (सं० स्त्री०) कोटेभ्यो जायते कोट-जन्-ड-टाए। सिकुड़ जाते और प्राय: एक घण्टा सुद्रित रह खुन्न लाचा,साह, लाख। पाते हैं। उप्त जातीय उदिको अंगरेजो उद्भिशास्त्र में कीटनामा (सं० स्त्री०) रतलजालुका, लाल ताज ट्रोसेरा मनी ( Drosera Brumanni ) कहते हैं। (२) हमारे देश लामि जो कोई उपजती, वह कोटपक्षोद्भव (सं० पु०) कोषकारसे चित्रपतङ्गके प्रति भी कीट भक्षण कर अपना निर्वाह करती है। हम परिवर्तन, तीतोरसे तितिलीको तबदीली। लोग जिन्हें काईका पत्ता समझते, वह सूक्ष्म नलाकार कोटपादिका ( सं० स्त्रो०) कोटा: पाद मुलेऽस्या:, पत्राणुमात्र ठहरते हैं। उक्त नलाकार पत्राणका सुख कोट-पाद-कप-टाप, अत इत्वम् । १ हंसपदीलता, एक सर्वथा खुला नहीं रहता। नलके मुख पर एक ढक्कन वेल । २ रतलज्जालुका, लाल लाजवन्ती। होता है । वह मोतरको ओर खुन्न जाता है। नलके कोटपादी, कोटपादिका देखो। मध्य गोंद जैसा रस रहता है। जो सकल जनीय कोटभुक्-उद्भिद-कोटको साहार करनेवाले वृक्षादि, कीटाणु यन्त्रक साहाय्य व्यतीत चक्षुसे देख नहीं पड़ते, कोड़ों को खानवाले पौधे । अाजतक उक्त श्रेणीके जितने वह जलमें घूमते समय उक्त नलों के सम्मुख पहुंचते उद्भिद भाविष्कृत हुवे हैं, उनमें निम्नलिखित कई हैं। उसी समय नन्नका ढकन खुल जाता है। कोट एक प्रधान हैं। रसपानके लिये उसके भीतर प्रवेश करता है। उसके (१) विहारप्रदेशके मैदानी और पर्वतके ढाल घुसते ही ढक्कन लग और कोट क्रमशः सङ्ग गलकर स्थानोंपर सामान्यत: भारतवर्षक पावत्यप्रदेशमें वृक्षके रसमें मिल जाता है। क्षुद्र वृक्ष होता है उसके पत्र छोटे, गोल और कुछ (३) अमेरिकामें एक प्रकारका वृष होता है। कुछ नाल रहते हैं। उसके डण्ठल लम्बे और सुगठित अंगरेजीमें उसे वेनस फ्लाई-ट्राप (Venus hy-trap) नगते हैं। दूरसे उक्त वृक्ष देखने में समझ पड़ता, मानो कहते हैं। उसके पन दो भागमें विभक्त हैं। पत्रके भूमिपर कोई लाल चीज पड़ी है। पत्र बहुत धने होते अध्यभाग और निम्नभागके मध्यस्थलमें पत्रको केवल हैं। पत्रकी चारो दिक, केशराकार कई पत्राणु उत्पत्र मध्यशिरा रहती है। जखण्डकी चारो ओर सूक्ष्म होते हैं। उन पत्राणुके अग्रभागमें चिड़ी रंगको भांति कण्टक वैटित होते हैं। फिर जवखण्डके पत्र पर भी एक घुण्डी जैसी लगी रहती है। मूलपत्रांश द्रोणं जैसा कई कण्टक निकलते हैं। उक्त कण्टकोंका मुख नाना होता है। उक्त ट्रोणमें एक तरल पदार्थ रहता है। दिक को मुड़ा रहता है। पत्रके निकट कोई पतङ्ग वह फिर सूर्यकिरणमें प्रति. उज्ज्वलता धारण करता उड़ने से उसकी मध्यशिरा.रतवर्ण हो जाती है। पतङ्ग है। पतङ्ग उड़ते उड़ते सम्भवतः उसे जस वा मधु.समझ उस मनोहर वर्ण के .पत्रको मधुपूर्ण पुष्य समझकर ।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७५१
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