कोटभृङ्गः-कोटमेष उस पर बैठता है। उसके बैठते ही पत्र सिकुड़ता और किसीको कीट खिला तथा किसीको न खिला हदिके कण्टकोंके आघातसे कोट मरता है। पीछे कीटको लक्षपसे स्थिर किया है कि कोटभुक उभिटके लिये गल जाने पर पत्र शोषण कर लेता है। कोटादि भोजन एकान्त पावश्यक है, नहीं तो उनकी (४)मारा चिरपरिचित तम्बाकूका पेड़ भी पूर्ण रूपसे वृद्धि होने में बाधा पहुंचती है। कोटभुक् है। उसके पत्तों पौर कच्चे डण्ठलों में घिप बहुतसे लोगोंने इस प्रकार मीमांसा की है कि चिपा रस रहता हैं। इसमें एक अच्छा मधुवत् गंध चाय, नील, इक्षु प्रभृतिक क्षेत्र में तम्बाकूका पौदा गा. छठता है। मत गन्धसे पाकष्ट को अनेक कोट-पतङ्ग नेसे उनमें कोड़ा नहीं लगता। क्योंकि तस्वातूको पत्ते और डण्ठल में जाकर चिपक जाते हैं । तम्बाकू डालो और पत्तों में लगकर वह मर जाता है। रसमें कीड़ा न गलते भी नव वह उसके खौचनेको | कोटभृङ्ग (सं० पु० ) न्यायविशेष । अनेक वस्तु एक रूप शशि रखता, तब कोडेसे उसको अवश्य कोई न कोई हो मानसे कोटभृङ्गः न्याय लगता है । कहते हैं कि उपकार पहुंचता है। भृङ्ग दूसरे कोड़ों की पकड़ और बिल में लेजाकर अपने (५) रक्त रण्ड भी उसी प्रकार गुणविशिष्ट है। ही रूपका बना डालता है। उसपर कोटादि बैठते ही गात्रवर्ण काला पड़ जाता फोटमणि (सं० पु.) कोटेषु मणिरिव, उपमि और केशरवत् पत्राणुसे रस निकल पाता है। फिर १ खद्योत, जुगनू । २ पतङ्गभेद, तितली। उक्त रस उसको गला डालता और वह वृक्ष शरीरको कोटमदरस (सं० पु०) कम्यधिकारका रसविशेष, सोडे पालता है। पड़ने की एक दवा। शुद्धसूतं, शुद्धगन्धक, अजमोद, (६) कोई दूसरा हक्ष भी होता है। उसके पत्रके विडङ्गक, विषमुष्टि और ब्रह्मदण्डी यथाक्रम गुणोत्तर अग्रभागसे किसी पेचीदा शीर्षके पाग एक भाण्डाकार ले कूट पीसकर १ निष्क मधुके साथ खाने पर मनुष्य पत्र रहता है। उक्त भाण्डका मध्यभाग रससे पूर्ण | कमिनिव हो जाता है। पीछे मुस्ताका काय पीना और उसके मुख पर एक ढक्कन होता है। पूर्वकाल लोग विश्वास करते थे कि पथिकोंको पिपासा मिटान-कोटमाता (सं० स्त्री०) कोटानां माता इव, उपमि० । को भगवान्ने उता भाण्ड बना उसमें कृष्टिनल भरकर- हंसपदीलता, एक वैन । उसके मूलसे बहुसंख्यक के रखा था। किन्तु अब परीक्षासे स्थिर हुवा है कि कोट उत्पन्न होते हैं। वह भाण्ड कोट-पतङ्गादि पकड़नेके लिये कौशलस्वरूप | कौटमारी (सं० स्त्री० ) काट मारयति, कीट-मृ-णिच- है। कीट-पतङ्ग उसके रसके गन्धसे मुग्ध हो भाण्ड भण डोष । रता-लज्जालुका, ताल स्लाजवन्ती। गर्भ में पतित होते हैं। उनके गिरते ही ढक्कन बन्द | कोटमेष (सं० पु. ) कोटो मेष दव, उपमि० । उञ्चि- हो जाता और मध्यमें वोट गलकर अपना प्राण टिङ्ग जातीय कीटविशेष, झींगुरको किस्मका एक गंवाता है। कोड़ा । वह नदीतीर वालुकाके मध्य गतं बना वास उक्त नातीय उद्भिदका मूस बहुत दोघं नहीं करता है। पाकारमें कीटमेष उञ्चिटिङ्ग जैसा रहता होता । किन्तु घासके मूलको भांति संख्या पाधिक्य और उसी प्रकार कूद कूदं कर चलता है। किन्तु उचि- ...भाता है। टिङ्गको अपेक्षा उसको पावति कुछ बड़ी होती है। अनेक लोग तर्ककर कहते हैं कि उस कीटादिसे कीटमेष पृथक पृथक् गर्तमें वास करते हैं। दो को वृक्षके शरीर-पोषणने कोई साहाय्य नहीं पहुंचता। एकत्र कर देनेसे उनमें भयकर युद्ध भारम्भ होता है किन्तु यदि वैसा न होता, तो उसके गलनेसे रस क्यों दोनों में एकके निहत न होने तक युद्द चला करता है। इक्षक भरीरमें जा पहुंचता । वहुविज परोक्षकोंने ख नसतेसमें एक कोटमेष सलकर व्यवहार बारनेसे .:स्व पासयमें उक्त सकस भिर्दीका कलम लंगा और कण्डू रोग प्रारोग्य होता है। - चाहिये।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७५२
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