२२६ लहुल-लहे। विभाग, दक्षिण-पश्चिममें कागडा और कुल्लू तथा दक्षिण-1 तिच्यतीय अधिकारसे निकल कर स्वाधीन हो गया, मालूम पूर्वमें स्पिति विभाग है। नही । पर हां, इतना अनुमान किया जाता है, कि १५८७ हिमालय के शिखर पर स्थित यह उपत्यका-भूमि में लदाखको शासनपद्धतिका सरकार होनेते पहले वडे बड़े पहाडोंसे घिरी है। उसके बीच हो फर च यह घटना घटी थी। कुछ समय तक यह स्थान ठाकुर- और भागा नामकी दो नदियां तीव्र धारासे वहती हैं। सामन्तोंके मानइतम रहा। स्थानीय उक्त सरदारगण और ताण्डी गांवके पास आपसमें मिल गई है। पीछे सभी चम्पाराजोंको कर देते थे। याज भी इन सरदारों- चन्द्रभागा नामले चम्बामें प्रवेश कर पंजावको सम- का ५वां वंश उस प्रदेशका शासन करता है। वे पूर्व- तल-भूमिमें बह चली हैं। पूरूपों की इस सम्पत्तिका जागीरदारकी तौर पर भोग इन दोनों नदीके अपवाहिका प्रदेशके दोनों किनारे करते आ रहे हैं। १७वीं सदीमें राजा जगन्सिहके पुत्र हिमालयकी चोटी खड़ी है। देखनेसे मालूम होता है मानो वुधसिंहके राजत्वकालमें यह कुलराजके अधिकारमें उसी भयावह और वनमानी समाच्छन्न पर्वत-फन्दराको हुआ। राजा जगत्सिंह मुगल सम्राट शाहजहान और फाड कर दोनों नदी इस छोटी उपत्यकामें वहनी है। योग्गजेबकं ममसामयिक थे। बुधसिहक अधिकारसे बड़ा लाचा गिरिपथ समुद्रको तहसे १६२२१ फुट ऊंचा १८४६ ई० तर लाहुलकुन्टूराजके दगल में रहा । पोछे वह है। उसने उत्तर-पूरवमें जो सब शैलमाला जिर उठाये मंगरेज-रोजके हाथ आया। खड़ी हैं, वे मी १९-२१ हजारसे कम ऊची न होंगी। यहाँके अत्रिशसियोंमसे ठाकुर उपाधिधारी सामन्त इस पहाडी उत्यकाका अधिकांश स्थान हो जन हो प्रधान । ये लोग अपनेको राजपून बतलाते हैं शून्य है । मनुप्यके वसनेका कोई उपयुक्त स्थान दिखाई सही, पर भुटिया या तिब्बतीय रवून इनके शरीरमें जरूर नही पड़ता । गरमीके दिनोंमें फुलुवासी ग्वाले इस है। कुनेन नामक पहाडी जाति भारतीय और मंगोलीय विभागमें भेइ चराने आते हैं। उस समय वे अपने जातिसे उत्पन्न हुई है। ये सबके सब बौद्धधर्मावलम्बी अपने रहने के लिये घर वना लेते हैं। कहीं फही लामा या| हैं। फिर भी वर्तमान ठाकु के उद्योगसे यहां धीरे धोरे वौद्ध-सन्यासियोंके घर और वौद्धसङ्घ दिपाई पड़ते हैं। हिन्दु धर्मकी भी गोटी जमती जा रहा है। नाचे उपत्यका- चन्द्रातीरवती कोकसारसे भागाके किनारे अवस्ति | भागमें कुछ घर ब्राह्मण धर्मयाजवाके है, किन्तु बहुत जगह दार्चा तक वासोपयोगी स्थान एकदम नही है। इस पुरोहिन लोग दोनों धर्मका पालन करते हैं। कहीं कहीं उपत्यका-भूमिके नीचे अर्थात् समुद्रपृष्ठसे प्रायः १० हजार निव्वतीय प्रथाका धर्मचक्र दिखाई देता है। पर्वतके ऊपर फुट ऊ'चे स्थानमें कुछ प्रामादि दिखाई पड़ते हैं। बहुतसे बौद्धमट प्रतिष्ठित है। उनमेंसे चन्द्रो और भागा १९३४५ फुट ऊंची अधित्यका भूमिमें काशर नामक ग्राम नदोके संगम पर अवस्थित गुरुगण्डाल-मठ ही प्रधान है। अवस्थित है । इतने ऊँचे पर इसके सिवाय और कोई यहांके वाशिन्दे बडे लंपट और शराबी होते हैं। किलां, ग्राम नही है। रोहराङ्ग और वारलाप गिरिपथ हो कर कार्दोग और कोलङ्ग ग्राम ही यहांका प्रधान वाणिज्य- लादक और यारखन्द जानेका एक चौड़ा रास्ता गया है। स्थान है। अधिवासी पशम, सोहागा, गदहे, वकर, भेड़े आज भी वणिक् लोग इस पथसे जाते आते हैं। और घोडे का व्यवसाय कर अपना गुजारा चलाते हैं। विख्यात चीन-परिव्राजक यूएनचुवन वी सदीमें | यहा ठंढ खूब पडती है। चैतके महीने में कार्दोङ्गकी यह स्थान देखने आये थे। पूर्वकाल में यहां चौद्धधर्मका वायुका ताप ४६, जेठमे ५६F तथा आसिनमें २६ प्रादुर्भाव था तथा यह स्थान तिव्यतराज्यके अन्तर्गत था। F बढ़ता है । पोछे धीरे धीरे कम होता जाता है। १०वीं सदी में भोट राज्यमें जब राष्ट्रविप्लव खड़ा हुआ, तब लह (हिं पु०) रक्त, खून । यह स्थान तिब्बतीय अधिकारसे निकल कर लदासके लहेर (हिं० पु०) सुनार ब्राह्मण । शासनमुक हो गया। किस समय तथा कैले यह स्थान लहेरा (हिं० पु०) छोटे सोलका एक सदावहार पेड । यह
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