पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/३७५

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३८० लोपामुद्रा प्रकार लिखा है ! महर्षि अगस्त्यने एक दिन अपने पितरो. हो कहा, 'आपने सन्तान के लिये मुझे अपनी भाया को एक विवरसे लम्बमान देख पूछा था, कि आप लोग | बनाया है, किन्तु मेरा यही मिलाप है, कि मेरे पितृ गृह यहां अत्यन्त दाटसे क्यों समय बिताते है ? उन्होंने उत्तर में से विडायन, बग्ग बार भूपणादि थे, वैसे ही बिछा. वन और वनभूपणसे विभूपिन पर आप मेरे साथ सह- दिया, "पुत्र अगस्त्य ! तुम पुत उत्पादन करके हम लोगोंको इस मटसे उद्धार करो। इससे तुम्हारा भी वास करे ।' अगस्त्य बोले, 'मैं नपम्बी हं, राजाचित कल्याण होगा।" इस पर अगस्त्यने उनसे कहा, 'मै यस्खभूरण यार जय्या कदा पाऊ? इन पर लापामुद्रान आप लोगोंका मिलाप पूर्ण करूंगा।' पीछे अगस्त्यने जवाब दिया, 'आप तपोवन नपके प्रभावसे क्षण र- स्वय पुनरूपमे जन्मग्रहण करेंगे, ऐसा स्थिर किया, मे ही उन सब चीजॉकी सप्रद कर सकते है। अगस्त्य किन्तु उन्हे मनोनुकल कन्या न मिली। पीछे उन्होंने ने फिर कहा, तुम्हारा वदना तो सच है, पर ऐसा करने मन ही मन सोच विचार र जिस प्राणीका जो अङ्ग- ले मेरे तपमे विघ्न-बाधा पहुंचेगी। अतएव जिससे प्रत्यग अति उत्कृष्ट था, उस प्राणीका वह अङ्ग प्रत्यक्ष मेरे तपमें वाया न पचे, ऐमा ही कोई उपाय करो ।' मन ही मन संग्रह कर उससे एक कन्या निर्माण की। इस पर लोपामुद्रा बोली, 'तपोधन | मेरे मृतुकाल १६ इस समय विधिपति पतके लिये तपस्या कर रहे थे। दिनमे थोडा दी वाकी रह गया है. बिना अडारादि अगम्त्यने अपने लिये निर्माण काई व कन्या विदर्भ- पहने आपके पास जानेकी मेरी इच्छा नहीं होती और राजको दे दी। राजाने इस न्याका नाम लोपामुद्रा आपका धर्मलोप करनेशी मी मेरी इच्छा नहीं , अतएव रखा। धीरे धीरे उस कन्याने युवावस्थामें कदम ! जिससे धर्मलेप न हो और मेरा अभिलाप मी पृग । बढ़ाया। जाय, ऐसा ही उपाय कीजिये।' इस पर अगस्त्यने कहा, महर्षि अगम्त्यने लोपामुद्राको जब गाईध्यकी योग्य 'मुभगे! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है, तो कुछ काल देग, तब विदर्भराजके पास जा कर कहा, 'राजन् ! ठहरो, मै उतना धन कमा लाता है जितनेसं तुम्हारा ठहरा, म पुत्र के लिये गार्हस्थ्य धर्ममे मेरी इच्छा हुई है। अतएव अभिलाप पूग हो ।' आप मेगे लोपामुद्राको लौटा दें।' राजाने कर्तव्य अनन्तर अगस्त्य राजा श्रुतवर्गले यहा आये। विमूढ हो रानीसे यह बात जा कही। रानी भी कोई उन्होंने राजासे कहा, 'राजन् ! मै धनार्थी हो कर आपके उपयुक्त उत्तर न दे सकी। इस पर लोपामुद्राने राजा पास आया हूं, इसलिये मुझे कुछ धन दीजिये। पर हा, और रानीको दुःसित देस कर कहो, 'पिताजी! आप | ऐसे धनसे मुझे काम नहीं जिसके देनेसे दूसरेको कष्ट मुझे ऋपिके हाथ सौप दें।' अनन्तर विदर्भराजने पहुंचे। राजाने उत्तर दिया, 'मेरी आय और व्ययसी कन्याके वाक्यानुसार विधिपूर्वक अगस्त्यका वह कन्या परीक्षा कर जितनी इच्छा हो ले लीजिये । दब अगस्त्यने सम्प्रदान की। अगस्त्याने लोपामुद्राको भार्यारूप ग्रहण राजाकी आय और घयको समान देख कर सोत्रा, कि किया और कहा, 'अभी तुम बहुमूल्य वसन भूपणका परि यह धन लेनेसे राजा और प्रज्ञा दोनोंको हनकी सम्भा- त्याग कर चीर वलकल पहनो। लोपामुद्राने वैसा ही बना है। इसलिये उन्होंने धनग्रहण नहीं किया। पीछे वे किया। राजा श्रुतवर्मा साथ निश्वके यहा और यहा भी त ___अगस्त्य गगाके किनारे आ कर अनुकृटा साधर्मिणी.. कार्य न हो पुरुकुत्ल बसदरयु आदिके यहा गये। यहा के साथ घोर तपस्या करने लगे। इस प्रकार बहुत दिन भी अपरिमित अर्थ न रहने कारण अगस्त्य वातापिक बीत गये। एक दिन अगस्त्यने तपःप्रदीप्ता लोपामुद्राको भाई इन्चलके पास गये। इल्वलने मेषरूपधारी वातापिके ऋतुम्नाता देखा। उनकी परिचर्यामिनता, जितेन्द्रियता, मांससे ऋषिको परितृप्त किया। अनन्तर इल्वल वातापि- श्री और रूपलावण्यसे सन्तुष्ट हो अगस्त्यने रति- को बार बार पुकारने लगे। इस पर अगस्त्यने कहा, कि कामनासे उन्हें बुलाया। लोपमुद्राने अत्यन्त लजित | मैंने वातापिको हजम कर डाला । अनन्तर इत्वलने अति