पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गगनवज्ञभ-गङ्गा गगनवनभ. गगममन्दन खो: वृष्टिके जलका यह स्वाभाविक गुण रहते भी उसके अप- गगनविहारी । म त्रि०) गगन विहर्तुं शोल यस्य, वित्र स्थान वा अपवित्र पात्रमें पतित होनेसे उसका पीना वि-ह-णिनि। १ आकाशपथमें विचरण करनेवाला, जो या उसम नहाना अतिशय अहितकर और अवहार्य प्राममानमें घूमता हो। ( पु० ) २ खेचर, पक्षो । है। पात्रके दोष गुण अनुसार जलको भो भला बुरा गगनमद ( म. वि.) गगन सौदति गच्छति, गगन-सद समझते हैं। (सत) किम् । १ अाकाशगामो. हवामें उसनेवाला । (पु० ) | गगनेचर ( म० पु० ) गगने चरति, अलुक्म०। १ देवता २ सूर्य आदि ग्रह । ३ देवता । २ सूर्यादि ग्रह। ३ राशिचक्र । ( त्रि०) ४ गगन- गगनमिन्ध ( म० स्त्री० ) गगनस्य मिन्धः, ६-तत् । मन्दा. चारी, आसमानम उड़नेवाला। किनी, गगा। गगनोल्म क ( म० पु० ) गगने उलमुक इव। मङ्गल- गगनस्पश ( म पु० ) वाय, हवा । गगनाङ्गना ( स० स्त्री० ) गगनगता अङ्गना। दिवाङ्गना गगर-युक्तप्रदेशकै नैनोताल और अलमो । जिलेको एक अमरा, परो। पवतीणो। यह अक्षा० २८. १४ तथा २८.३० गगनादिलोह (मको ) एक औषध । अभ्रक त्रिफला उ. और देशा० ७८७ एवं ७८.३७ पू०के बीच पड़तो लौह. कुटज, त्रिकट पाग, गन्धक, मड्डिया, मोहागा. है। इमका प्रकृत नाम गर्गाचल है। इसम तुन, मनो- मज्जीमहो. दालचोनो इलायचो, तेजपत्र वङ्ग दोनों जोरा बर आदि अच्छी अच्छी लकड़ियां होती हैं। मबको चण करना और उममें मबसे आधा चित्रकचर्ण | मगरा (हि. पु. ) कलसा, घड़ा। यह तांबे, पीतल, मिलाना चाहिये इमोका नाम गगनादिलौह है। इमको लोहे, मट्टो आदिका बनता है। २ तोले मधर्क माथ लेहन करने पर मोमरोग और | गगरो (हिं. स्त्रो० ) कलम , छोटा घडा। मूत्रातिमार अच्छा हो जाता है। ( सेट मारमगत) गगली ( हि स्त्री० ) अगभेद, किसी किस्मका गर । गगनादिवटी ( म स्त्री० ) वातरोगका एक औषध । गगोरी ( हि स्त्री०) कमिविशेष, एक कोड़ा। यह अभ्रक, पारद, गन्धक, ताम, मुगडस्लौह तोक्षालौह भूमिक भोतर बिल तैयार कर रहती है। और स्वर्णमाक्षिक बराबर बराबर ले करके मुलहटी | गग्नु ( म स्त्री० ) वाक्य, गुफ्तगू, बात । वामक, द्राक्षा तथा भूकुष्माण्डके क्वाथमें घोटना चाहिये ।। गन्न ( स० पु० ) हास, म । पसको २ रत्ती घो और शहदके माथ खाने पर कठिन | गङ्ग (हिं. पु.) १ एक मात्रावृत्त। इसके प्रतिपादमें वातरोग, पित्तरोग, क्षय, भ्रम, मद. कफ, शोष, दाह | मात्राएं लगती हैं, अन्तको २ गुरु रहना चाहिये। और पृष्णा मिट जाती है । ( रसेन्द्र मारसयर ) गङ्ग---हिन्दी भाषाकै एक प्रसिद्ध कवि। यह अकबरके गगनावग (R• पु.) गगनाध्वना गच्छति, गम-ड। समयमें विद्यमान थे। इनका प्रकत नाम गङ्गाप्रसाद सूय। गगनानङ्ग ( म'• क्ल.) मात्रावृत्तभेद । इमके आदिमें | गङ्ग (हि.) गा देखा। रगण लगता और प्रत्ये क पादको १६वौं मात्रा पर विश्राम | गङ्गकवि,-माप्रसाद देखी। पड़ता है। फिर गगनानङ्ग के प्रतिपाद: ५ गुरु और | गङ्गकोति-दि० जैन ग्रन्यकर्ता । ये वि० स० ११७७में १५ लघु लगते हैं। कोई कोई १२ मात्राओंके बाद भी हुए थे। यति निर्देश करता है। | गङ्गदेवकवि-दि० जैन ग्रन्यको । इन्होंने "श्रावकप्राय- गगनाम्बु ( स० लो० ) गगनम्याम्बु , ६ तत् । गगनोदक, | वित" रचा था। वरषातो पानो। यह वल्य, ग्मायन, मेध्य, शीतल, आना-| गङ्ग। ( सं० स्त्री० ) गम्यते ब्रह्मपदमनया गच्छतीति वा, दक और त्रिदोष, ज्वर, दाह, विष तथा रक्षोन होता है।। गम्-गन् टाप् । एक प्रसिद्ध नदी । इसका पर्यायः-