पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५०३

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पायावाद • अवभासफ होनेको बजह यह सर्व हैं। इस विषयमें | इस अशान में दो शक्तियां हैं:-एकका नाम आवरण- थुति इस तरह कहती है, जो समष्टि और तदन्तःपाती शक्ति, दूसरीका विशेष-शक्ति है। आवरण शक्ति सभी व्यक्तियोंको जानते हैं, घे सर्वज्ञ और परमेश्वर है। समझने के लिये यह दृष्टान्त दिया जा सकता है, कि एक

. ईश्वरकी उपाधि स्वरूप समष्टि अज्ञान सबके लिये छोटा-सा मेघखएड दर्शकके फेवल नेत्रोंको आच्छन्न

यस्तुका कारण है। इसीलिये वह ईश्वरके कारण कर लेता है, किन्तु दर्शक जानता है कि इस मेघ खएडने शरीर है। समूचे सूर्यको ढक लिया है। उसी तरह अशान भी . जिस तरह वनको व्यष्टि वृक्ष है, जो अनेक हैं मोर जला अपने बुद्ध यादिरूपसे परिच्छिन्न होने पर भी बुद्धिप्रति. शयकी व्यष्टि जल है, वह भी अनेक है, उसी तरह समटि विम्बित चैतन्यको आयत फरनेसे समझनेवालेको अपने में ...अशानको व्यष्टि अज्ञान भी अनेक है। श्रुतिमें लिया है. सर्वव्यापक आदि अनुभव नहीं होता। सर्वव्यापक ____कि परमेश्वर पहुपाया द्वारा अनेक रूपोंमें प्रकाशित चैतन्यके जिस अंशमें घुद्धि है उसी अशा जीय है। • होते हैं। . जोयांश अशानले आवृत होनेसे अपनेको बंधा हुआ और . यहां देह, इन्द्रिय और अन्तःकरण आदि नाना प्रभेद। संसारी अनुभव करता है। अज्ञान जिस शक्ति द्वारा “युक्त जीवथ्यापी अज्ञानको ध्यष्टि अशान और महतत्त्व आत्माके स्वरूपको आवृत करता है, उसो शक्तिका नाम 'नामक अविभक्त ईश्वरानुगत मूल-अशानको समष्टि अज्ञान | आवरण-शक्ति है । श्रुतिमें लिखा है, कि अज्ञ मनुष्य जिस निर्देश किया गया है। तरह मेघाच्छन्न नेवसे सूर्यको मेघाच्छन्न और प्रभारहित 'व्यष्टि अशान निएको ( अर्थात् असर्वश और अल्प- देखता है वैसे ही अयियको पुरुष अपने शानसे समा. शक्तिमान जीवको) उपाधि और मलिनसत्त्व प्रधान है।) च्छन्न हो पर अपनेको बंधा हुआ देखता है। जो मूढ़ इसमें जो चैतन्य प्रतिविम्वित हो रहा है, उसको जीय | बुद्धिको दृष्टिसे यंधु हुएकी तरह दिखाई देता है, यहो कहते हैं, यह अल्पज है । अल्पज्ञता हेतु उसको अनीश्वर-] सर्वव्यापी परमात्मा मैं हूँ। · त्यादि गुणविशिष्ट प्राप्त कहते हैं (अश)। मलिनः ज्ञातव्य वस्तु यदि महान द्वारा आयत हो अर्थात् • सत्त्वप्रधान इसका मावार्थ यह है, कि महतत्त्व नामक यदि सब मशों में स्फुत्ति नहीं होता, तो उसमें कोई एक । मूल ज्ञान के बाद उसके रजः और तमो-अश पृद्धि पा विपरीत प्रत्यय उत्पन्न होती । जैसे रस्सी या जल. फर अहंकार और अन्तःकरणको सृष्टि करता है। रजः धारा अज्ञानात होनेसे सर्पका बोध होता है या पैसे योर तमोमिश्रित होनेके कारण अन्तःकरणादिकी प्रकाश ही एक कल्पित दृश्य दिखाई देता है । अतएव परमात्मा- ' शक्ति अल्प है इससे उसका उपदित चैतन्य भी अल्पका का स्वरूप समान द्वारा ढके रहनेसे कर्तृत्व, भोफ्तृत्य, शक है। इसीलिये जीव अल्पश है। सुखित्व, दुःखित्व आदि सांसारिक धर्म कल्पित होते • जीवको प्राश नामसे पुकारनेका कारण यह है, कि रहते हैं। उक अशान जिस शक्ति द्वारा कल्पना करता • जोष सय मशानोंका 'अयभासक है। जोवकी उपाधि | उस शक्तिका नाम विक्षेप है। भी अस्पष्ट है अर्थात् रजस्तमोमिश्रित होनेसे मलिन है। विक्षेपशक्ति और सृष्टि करनेको सामयं ही इसीसे अल्प प्रकाशक या प्राज्ञ है। "प्रायेण अE: वात है। आवृत होने पर ही विक्षेप अर्थात् कल्पना उप- अर्थात् प्रायः हो नहीं जानता। स्थित होतो है यह अनुभवसिद्ध है। जिस तरह रस्सी. ... पहले जो व्यष्टि और समष्टिको यात कही गई है। को अच्छी तरह न जान सकनेके कारण सर्प आदिको 'यह फेवल कल्पनामात्र है। यन और वृक्ष वास्तवमें जैसे कल्पना होती है, उसी तरह आत्मविषयक मानने अभिन्न है, पैसे हो व्यष्टि योर समष्टि-दोनों अशान हो स्वावृत आत्मामें तुच्छ भवस्तु भाकामादिको सृष्टि की अभिन्न है, अर्थात् एक है। भिन्नता कल्पना ध्यय- है। शानकी जिस शक्ति द्वारा ऐसी एष्टि होती है, हारिफ है। . . . . . . उस सृष्टिका नाम विक्षेप है। इस पर प्रतिका कहना Vol. AII, 112