पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५०६

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मायावादिन्- गायासोता वह मेरे स्वरूपको देख नहीं सकता, इसलिये उसका । मायाचिन् (सं० वि०), प्रशस्ता माया कापट्य अस्त्यस्येति । मायावन्धन मुक्त नहीं होता। . . . . . ! माया- असमायामेघासजो विनि :- पा ५।२६१२१) इति चिनि। ' ___मायिकवन्धन बहुत कठिन इन्धन है, सब तरहका १मायाकार, बहुत बड़ा चालाक, धोखेबाज़।,पर्याय- दुःख ही इसका मूल है, जिसको साधारण लोग सुख व्य'सक, मायो, मायिक, ऐन्द्रजालिक । (पु०),२ विड़ाल, । कहते हैं यथार्थमें वह सुख नहीं, वह सुख नामक दुःख विल्लो । ३ एक दानवका नाम । यह मयका पुत्र था और । है। जय तक मायाका बन्धन नहीं छुटता, तब तक / वालिसे लड़ने के लिये किष्किंधामें आया था। वाल्मीकि- । समो दुःख केवल मायाका पिलास है और नटका खेल के अनुसार यह दुन्दुभी नामक दैत्यका पुत्र था। ४ मोहन है। लोग जैसे स्वप्न में सुखदुःखका अनुभव करता है। शक्तियुक्त परमात्मा। , राजा वजोर होता या वजीर राजा होता है, उसी तरह "स्वतश्विदन्तर्यामी तु मायावी समष्टितः। यह भी झूठा मालूम होता है, मायाका बन्धन छुट जाने . सत्रात्मा स्थलसृष्टय व विराइित्युच्यते परः॥" . से संसारको भी उसी तरह निवृत्ति होती है। .. . . . . . . (पञ्चदशी ६४ ) ___ योगवाशिष्ठके उपशम-प्रकरणमें लिखा है, कि इस मायाविनी ( स०सी०) छल या कपट करनेवाली स्त्री, संसार नाम्नी मायाका दूसरी किसी वस्तुसे पावसान उगिनो। नहीं होता। केवल मनको जीतनेसे ही इसकी विवृत्ति मायावी (सत्रि०) मायाविन देखो। . होती है। इसके सम्बन्धमें एफ उपाख्यान इस तरह । | मायावीज (सं० पु०) ही नामक तान्त्रिक मन्त। . . कोशल जनपदमै गाधि नामके एक महामुनि थे। | मायासोता (सं० स्त्री०) मायाकल्पिता सीता। योग गाधिने भगवानको प्राप्त करनेके लिये घोर तपस्या ठान द्वारा अग्निकृत सीता, यह कल्पित सीता जिसकी दो । भगवान्ने इनको तपस्यासे सन्तुष्ट हो कर उनसे सृष्टि सीताहरणके समय अग्निके योगसे हुई थी। : ब्रह्म- वर मांगनेको कहा। इस पर मुनि महाराजने यह घर चैयर्तपुराणमें लिखा है--सीताहरणके समय अग्निने मांगा, "भगवन् ! आपने परमात्मामें जो एक मायाकी वास्तविक सीताको हटा कर उनके स्थान पर मायासे रचना की है, मैं मोहकारिणी संसार नाम्नी उसी माया- एक, दूसरी सीता खड़ी कर दी थी। पीछे.सीताकी अग्नि परीक्षाके समय फिरसे लौटा दी। . . . । को देखना चाहता हूं।" भगवान्ने कहा, "तुम उस मायाको देख सकोगे, और पोछे इससे मुक्त भी हो । थग्निपरीक्षाके समय मायासीताने राम और अग्निः । जाओगे।' अनन्तर गाधि मायादर्शन करने जा कर कठोर पूछा था, 'मैं अभी क्या करू, कोई रास्ता वतला दीजिये' संसारके आवर्त यानी चक्कर में फंस गये। इस मायामें इस पर अग्निने कहा 'तुम पुष्कर में जो कर तपस्या करो।' पड़ कर उन्हें बहुत दिनों तक दुःख भोगना पड़ा। कभी अग्निके वाक्यानुसार मायासोताने। तीन लाख वर्ष तक कठोर तपस्या को थी । इस तपोवलसे मायासीता राजा, कभी दरिद्र इस प्रकार मायाके खेलका जब उन्होंने स्वर्गलक्ष्मी हो गई थी। . , . . खूब अनुभव किया, तो भगवान्ने उनको मायासे मुक्त कर दिया। योगवाशिटके उपशम प्रकरणके ४५ सर्गसे ५५ सर्ग ( ब्रहावैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड. १४ अध्याय) तक विशेष विवरण देखो। । अध्यात्मरामायणमें लिखा है-मारीच गायामृगका मायावादिन (सं० पु०) मायावादी देखो। .. रूप धारण . कर जब राम और सीताके समीप आया मायावादी (सं० पु०). ईश्वरके सिवा प्रत्येक वस्तुको तव स्वयं भगवान् रामचन्दने सोतको एकान्तमें बुला कर मनित्य माननेवाला, यह जो मायावादके अनुसार सारी | कहा था, 'जानकि ! भिक्षु रूप रावण तुम्हारे पास आयेगा सृष्टिको माया या भ्रम समझता हो। अभी तुम अपनी सदृशाकृतिको छाया-कुटोरमें रख कर .. मायाचिद (स. त्रि०) मायां वेत्ति विद् किप । माया, जो । गम्निमें प्रवेश करो और यहां एक वर्ष तक ठहरो। रावण मायाके स्वरूपसे जानकार हो.। . . . . वधके बाद मैं तुम्हें फिर घुला लूंगा। जानकीने जैसा ।