पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७२५

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गीमांसा ये दोनों वर्ण एकदम स्वतन्त्र हैं। कोई किसीको प्रकृति । हुई, तो वह दूसरे पदार्थाके शब्दका कारण होगी, सम्भर नहीं, और न कोई किसीको विकृति ही आपत्ति है। नहीं। दुसरी भापत्ति यह है, कि शब्द बढ़ता है। यह भी अत्यन्त इसलिये घेद भी कहते हैं, कि शब्द नित्य है। इस - तुच्छ है ।. शब्द नहीं बढ़ता, वरन् उधारण करनेवालों. दर्शनके व्याख्याकारोंने और भी कहा है, कि शब्द झान- के कंठकी मायाज हो चढ़ती है। बहुत लोग जव एक का मूल शब्द है. शब्दज्ञान पुरुप (कर्ता )के अधीन है। साथ बोलते हैं, तव पड़ो आवाज होती है, शब्द असेका भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा और इन्द्रिया पाटच ये चार शेष तैसा रहता है। पुरुपके हो सकते हैं । मतपय पुरुषकल्पित शम्द - जैमिनिने इस प्रकार सभी आपत्तियोंका खण्डन कर अप्रमाण है, तो भी वेद-शब्द अपौरुषेय हैं। इनमें शब्दको नित्यताका प्रतिपादन किया है शब्द नित्य । वे दोष न रहनेके कारण घेद शब्दका प्रमाण अक्षत है, क्योंकि उन्चारणमाल ही परार्थ है। लोग अपने और स्वतः सिद्ध है। शब्द और शब्दार्धं कभी भी जाने हुए शब्दार्थका दूसरेको ज्ञान दिलाने के लिये उस । (पुरुषकृत ) कृत्रिम नहीं। दोनोंका सम्बन्ध भी पुरुष- शनार्थको व्यक्त करनेवाली ध्वनि करते है जिसको । कृत सङ्केतमूलक नहीं है। अतएव किसी भी प्रकार उच्चारण कहते हैं। यदि शब्द पहले होसे रहे तो दूसरों.. ' वैदिक शब्दमें पुरुष-सम्पर्क दिखाया नहीं जा सकता। को उसका छान करानेके लिये उस शब्दको यतलाने. फिर शब्दके उत्पत्तिपक्षका उत्थान और उसका खण्डन वालो ध्वनि करनेको लोगोंको प्रवृत्ति हो सकती है। किया गया है तथा पद, वाक्य और चाफ्यार्थक बोध्या "मगर नहीं, तो यह प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। वोधक सम्बन्धको सङ्कत-मूलकता कहां तक मनुष्य गो शERT उच्चारण करने पर उस समय सभी गौओं. करते है। इस पक्षका उत्धापन और खण्डन क्रिया का ज्ञान हो जाता है। यदि शब्द नित्य न रहता तो इस गया है। पश्चात् मिनिने याङ्मय घेदमें काठक, सम्पूर्णताका शान न होता! लोग ऐसा नहीं कहते, कालापक, पैप्पलादक आदि संशज शब्दोंका दान्त दे कि आठ वार गो शब्द करो। यह सब लोगोंका अनादि. ऋषि-प्रगात माशंका कर उन प्रयोगों को कृतिमूलकताको कालसे आता हुआ व्यवहार शब्दको एकता और नित्यता छोड़ प्रवचन मूलकताके व्यवस्था की है। (कठेन कृतं सिद्ध कर सकता है। काठक, ऐसा नहीं, कठेन प्रोक्त कठन आचरित) इस प्रकार - उत्पन्न द्रव्यमालका उपादान या कारण रहता है फठने जैसा आचरण किया, यदा कल है। क3 पिने सा किन्तु शब्द उत्पादनका उपादान दुर्लभ है। क्योंकि, शम्बको उत्पत्ति और विनाशका कारण (जिसको किया नहीं, केवल प्रचार किया था। इस शम्दवादके अपेक्षा कहते है । नहीं है अतपय शब्दको उत्पत्ति नहीं, वल पर जैमिनिने चेदको अपीरुपेय निश्चित किया है। और न विनाश हो है। ___ और और दर्शनोंके जैसे इस दर्शनमें प्रत्याक्षादि - • कोई कोई आचार्य समझते हैं, कि वाय हो शयका प्रमाण और उनके प्रमेय अनेक पदार्थोंका विचार दिखाया ' उपादान अर्थात् कारण है। ये सय भाचार्य शब्दको गया है। किन्तु ये सब अत्यन्त संक्षेपमें हैं। इसमे • उत्पत्ति और विनाश है. ऐसा कह सकते हैं लेकिन यह केवल चेंदवाक्यके विचार हो बहुत विस्तार हैं तथा । बात नहीं है। शब्दका कारण वायु नहीं । वायु ध्वनि वैदिक विधिवाफ्य, अनान्त, स्वतः प्रमाण और श्रेष्ठ ' का कारण है। चाय घातमतिधातोंसे उत्पन्न संयोगः। प्रमाण है इसीका इसमें प्रतिपादन हुआ है। 'विभागादिकं बसे ध्वनियोंको गुणी हो चारों ओर तरंग सामर्थ्य या अपूर्व । के रूपमें फैल जाती है। अनन्तर यह कानोम पड़ अनु- धम्म है, इसमें मतान्तर नहीं। यह धर्म याग, दान भवमें आ जाती है । अतएव शदध्वनि प्य होने के कारण और होमादि रूपमें वर्णित हुआ है। याग, दान और होमावि ध्वनि भिन्न है । इसलिये भी शब्द वायुसे उत्पन्न नहीं । विशेष कार्य में विशेषफल देते है । अतएव याग, दान और होता। जब वायु शब्द के उत्पत्ति-यिनाशकी कारण नहीं होमादिही धर्म हैं। याग, दान भौर होमादि इन्हें (अनुष्ठान) tc VI. 162