६५६ गोपांसा तपय उसके अनुवाद या उशारणके सिवा अन्य किसी पन्धनमें जीव घंधा शाहै । यदि उसके साथ सम्बन्ध हो विश्यमें पुरुषका कत्तं त्म नहीं है। रहा, तो मुक्ति हुई किस तरह ? ' सुतरां प्राकृतिक कोई भरीर भौतिक है, आत्मा उमसे भिन्न है। इस भो बन्धन रहनेसे मुक्तिको सम्मायना नहीं। मीमांसकों- दर्शनके मनसे भात्मा अनेक और प्रति शरीरमें भिन्न, के मतसे मन रहनेसे ही मुकजीव अनन्त कालके लिये अजर, अमर और शानशक्तिविशिष्ट है। आत्मा सुख अपरिच्छिन्न सुग्यका स्वादमाही होता है। .... दुःस्त्र भोता है और मानस महंप्रत्ययका अधिगम्य है। . चैतन्य अर्थात् ज्ञानशक्ति, आनन्द अर्थात् 'सुम्न, मात्मा विभु है, अत्माफी ज्ञान, शक्ति आदि शरीरमें ही . नित्यत्व और विभुत्य अर्थात् सर्वध्यापित्य-पे ही सय स्फुर्ति होती है, शरीरके बाहर नहीं। शान आत्माः । आत्माके अपने धर्म हैं। जब जीवका मोक्ष होता है, उस को शक्ति या गुण है। मोक्षकालो आत्मा इन्द्रिया-। समय उसमें ये सब विद्यमान रहते हैं। इसका उच्छेद तोत आगमगायिनी घुद्धि और सुख आदिसे रहित हो । होता। जाती है और म्यरूपगत ज्ञानशक्ति और सुख आविष्टत। मोक्षको प्रणालो-काम्य, : निषिद्ध शारीर और होता है। . . . . मानस क्रियाका वजन फर केयल निष्काम नित्य नैमित्तिक इस मतसे वर्ग तुखयिशेष और नरक दुःषविशेष है।। कर्ममें रत रह सकने पर या आत्मतत्व ज्ञानमें डुये रहने यह शरीर स्थानभेदसे भोग्य है। स्वर्ग सुखका : पर पूर्णजन्मके कारणीभूत धर्माधर्मको उत्पत्ति यक और नरक भोगका उपभोग्य भोग्यस्थान भी है और जाती है। सञ्चित धर्माधर्म भो दग्ध घीजकी तरह शरीर भी है। - निःशक्तिवान् हो जाता है। जव तक देद रहती है, तव ___जो अनतिशय आनन्दस्वरूप और दुःखविवर्जित हैतक जो भोग होता है, उसी भोगसे प्रारब्ध कर्म शयको यही स्वग है। अपया जहां कमो दुःखदैन्यका दर्शन प्राप्त होता है। सुतरां सुख दुःश्व और शरीरोत्पत्तिः नहीं होता और अमिलापोपनीत होता है अर्थात् उसका कारणीभूत प्रारम्य सञ्चित और आगामी धर्माधर्मके की इच्छा होते ही उत्पन्न होता है, यही स्वर्ग है। इसी। अमावमें भविष्यत्में सुख दुःख और शरीर उत्पन्न नहीं' सर्ग के लिये जीय प्रार्थना करता है । यागादि फर्म द्वारा होता। यह न होनेसे ही मोक्ष है । मुक तय अशरीर दो जीयको स्वर्ग प्राप्त हुधा करता है। । । फेवलमात्र मूल मनको ले कर अनवरत गात्म सुखास्वाद ___ वैशेषिक दर्शनकी तरह इस दर्शनके मतसे सुख से परितृप्तहमा करता है। . . . . . दुःखादि विशेष गुणों के विच्छेदसे ही मोक्ष होता है। शास्त्रमें जिस तत्वशानकी. प्रशंसा दिखाई देती है, भोगायतन शरीर, भोगसाधन और भोग्यविषय यहसय वह यशाल और मोक्षाङ्गदो तरहका है। यशादिकालका प्रपश्चान्तर्गत हैं। गतपय विधायिभक्तप्रपञ्च उक्त तीन , आत्मज्ञान याफलका पोषण करता है, फलका प्रकारसे पुरुषको वन्धन करता है गर्थात् भोग कराता आधिषय उत्पन्न करता है और सार्वभौमिक आत्मज्ञान है। भोग शब्दका अर्थ-सुखदुःखका साक्षात् करना मोक्षफलफे कारणभाषको प्राप्त होता है।. ..। है। इन तीनोंका सम्यन्ध परित्याग कर सकनेसे । ___ फर्मका फल अदष्ट है । अदृष्ट शुभाशुभ भेदसे दो तरह • जोय मोक्ष पाता है। संसार दशा भात्माका निजानंद का है। विहित कर्म का फल शुमादिष्ट, निपिद्ध कर्मका फल .- अभिभूत या भाच्छा रहता है। मोक्षकालमें उसकी स्फूर्ति अशुभादिष्ट है। इमीको पुण्य और पाप कहा जाता है। शुमा- होती है। मोक्ष दोने पर शरीर और इन्द्रियां नहीं रहतो, दृष्ट भी दो तरहका है-एक अभ्युदयका हेतु और दूसरा फेवल मन रहता है। अन्यान्य दार्शनिकोंके मतसे मन निरागसका उपाय | मकाम कर्ममें अभ्युदय लाम भी नदों रहता। क्योंकि उनके मतमे इन्द्रिय हो मन ! होता है और नि:काम फर्ममें निःश्रेयस अर्थात् मोक्षताम है, अपय यह प्रारतिक है। प्राकृतिक किसी तरह होता है। निष्काम कर्म सो अदृष्ट उत्पादन करना है फा सम्पन्न रहनेते मुनि मही होनी। प्रकृति या माशके कमी उसोको मामाध्यमे निःश्रेयस प्राप्त कर पतार्थ होता
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७३२
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