पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७३१

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मीमांसा है। जो निःश्रयसजनक नहीं, यह अभ्युदयका अर्थात् । सहनेमें असमय हो चूर्ण विचूर्ण हो जाती। अतएव ऐहिक और पारलौकिक उन्नतिका जनक है। । । देवताओंको मन्त्रात्मक कहने से कोई दोष नहीं होता। . इस दर्शनके मतसे सुख दुःख अत्यन्त पृथक् है। (सर्वदर्शनस० मीमांसाद०) 'सुखका अभाव दुःख है और दुःखका अभाव ही सुख है, शङ्कराचार्य घेदान्त व्याख्यामें मीमांसकके इस मतको • ऐसा नहीं। मुख और दुःख संसार अवस्था में चैप | खण्डन कर देवताके शरीरत्वको प्रमाणित किया है। यिक, माध्यामिक, मानोरथिक और आभिमानिक इन चार वेदान्त देखो। प्रकार के विभागमें भोग होते देखे जाते हैं। आत्मसुख । । मीमासाका संक्षिप्त इतिहास | इन सब सुखोंसे पृथक है । दुःसगुण आत्माका स्वाभा किस समय मीमांसाशास्त्रका सूत्रपात हुआ उसका विक नहीं है यह आरोपित या कल्पित है । यथार्थमें यह निर्णय करना असम्भव है। प्राचीन उपनिषदोंमें सांस्य, बुद्धिका गुण है। योग और घेदान्तका उल्लेख रहने पर भी मौमांसा न्याय • मीमांसादर्शनमें ६ प्रमाण माने गये हैं। यह ६ प्रमाण अथवा वैशेषिकका उल्लेख नहीं है। उपनिपमें वाद- वादी है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्धापत्ति रायण, जैमिनि, पतञ्जलि या कणादका भी नाम नहीं और योग्यानुलब्धि यहो छः प्रमाण हैं। आया है। प्राचीन उपनिपदोंमें जहां जहां मीमांसा . मीमांसक साध्वंसरूप महाप्रलयको नहीं मानते । शब्द थाया है, वहांके तत्यनिर्णयके अर्थसे किसी शास्त्र • यह परिदृश्यमान जगत् विलकुल हो नहो' था, पीछे विशेषका बोध नहीं होता। इससे अनुमान होता है, हुआ, इस तरहकी अभिनव सृष्टि नहीं मानते। वे कि उपनिषद् के समय जैमिनिका मीमांसादर्शन, वाद- कहते हैं, कि 'न कदाचिदनीदृशम्' अर्थात् इस समय जो रायणका ग्रह्मसूत्र, न्याय या वैशेषिकदर्शनका प्रचार नहीं जगत् द्दष्ट हो रहा है, इसका गात्यन्तिक और सर्वाथा | हुआ था। पहले कर्मकाण्डात्मक मीमांसा थी छान्दोग्य अन्यथामाव किसी समय नहीं था। सर्वध्वंसरूप | उपनिषद् और आश्वलायन गृह्यसूत्रमें उसका उल्लेख है। महाप्रलय युक्तिके विरुद्ध है, अतपय मिथ्या है। शास्त्रमें | यह मीमांसा सविस्तार या सुप्रणालोयद्ध थी कि नहो', . जो महाभलय शब्द आया है, उसका अर्धा एडप्रलय हो। यह कहा जा नहीं सकता। समझना चाहिये। महाप्रलयवाक्य मीमांसकोंके लिये सभी हिन्दूशास्त्रकार स्वीकार करते हैं, कि जैमिनि फेवल अर्शवाद है। मीमांसासूत्रक कर्ता है। उन्होंने पहले ही मीमांसा- - मोमांसफ कहते है कि पुराणादि शास्त्रों में जिन | शास्त्रका प्रचार किया था, इसीलिये यह पुमीमामा शरीरधारी इन्द्रादि देवोंका वर्णन पाया है वे सय ! और वादरायणने उसके बाद वेदान्तसूवमें जो शानतस्व- मर्शवाद है। अर्थात् ऊपर कहे हुप शरीरधारी इन्द्र । को मीमांसा की, यह उत्तरीमांसा या पोछेकी मोमांसा • मादि देवता यथार्थ में नहीं हैं। जिस देवताका जो | कही गई; किन्तु इस समयका प्रचलित जैमिनिक मीमांसा. जो मन्त वेदमें लिखा गया है, वह देवता वह मन्त्रस्वरूप सूत्रकी आलोचना करनेसे स्पष्ट ही मालूम होता है, कि हैं, मन्तारिक्त देवताओं के सम्बन्ध कोई प्रमाण नहीं महर्षि जैमिनिने अपने सूत्र में आत्रेय, बादरायण, वादरि, मिलता। वरं उसके विरोधमें बहुतेरे प्रमाण पाये जाते लावूकायन, ऐतिगायनको मोमांसाने मतको उद्धृत हैं। फलतः मोमांसादर्शनमें देवता-विषयमें जो मत है, किया है। अर्थात् अमिनिका मीमांसाग्रन्थ सूनाकार,

वह अतिशय कठिन और जटिल है, इसका सुस्पष्टभावसे प्रचलित होनेसे पहले भी आवेय आदिके मत मीमांसाके

प्रतिपन्न करना बहुत कठिन है। मीमांसक कहते हैं, सम्बन्धमें प्रचलित थे । जैमिनिने जैसे पादरायणका . यदि मन्त्रके सिवा कोई शरीरधारी देवता हो और उन मत उद्धृत किया है, बादरायणने भी उसी तरह उत्तर- देवताओं की पूजा की जाये और वे हो यदि घटों और मीमांसा या चेदान्तसूत्र में अमिनिके मतका उल्लेख किया मूर्तियोंमें अधिष्टित हों, तो घटें और मूर्तियां उनके भार है। अतएव प्रचलित पूर्वमीमांसा या जमिनिसून धादि C' AVII. 165