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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/८१७

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. ' - (भाव), मुखवास-मुखव्यङ्ग ७२ मुंखेवासं (सं० पु०) मुखस्य वासः सौरभ्यमस्मात् । १ मुग्वव्यदान (सं० पु० ) मुह दाना। गन्धतृण, सुगंधित घास। २ तरम्घुज लता, तरवूनको मुखविष्टा (सं० स्त्री०) मावे विष्टा मलमस्याः । नेल. लता। . .. . . | पायिका, तेलचर या सनकिरया मामका कीड़ा। इसके मुखवासन (सं० पु०) मुखं यासयतीति यस् णिच. मुहमें मल रहता है, इसीसे यह नाम पढ़ा। ल्यु। मुखका सद्गन्धकारक द्रव्य, यह चूर्ण जिससे | का मुखविधा पयोष्णी तरूपायका॥' . मुहकी दुर्गंध दूर होती है और उसमें सुवास आती (म) है। पर्याय-आमोदी । अनेक प्रकारकी सुगंधित मुखवैदल (सं० पु. ) कीटभेद, सुश्रुतके गनुसार एक द्रव्योंको मिलानेसे यह प्रस्तुत होता है। जैसे- प्रकारका कीड़ा । इसके काटनेसे वायु-जन्य पोड़ा , - : कस्तूरिकायामामोदः कर्पूरे मुख्नवासनः । होती है। . वकुले स्यात् परिमलश्चम्पके सुरभिस्तथा। । मुग्धव्यङ्ग (सं० पु० ) गएडगन क्षदरोग, मुंह पर पड़ने गन्धा द्विपटिरप्येते गुणि वृत्ती विक्षिकाः॥" थाले छोटे छोटे दाग। इसका लक्षण- . . . . . (शब्दार्णप) "क्रोधायासप्रकुपितो पायुः पितेन संयुतः। . . . मुखयासिनी ( स० स्त्री०) सरस्वती । मुम्बमागत्य सहसा मपटानं प्रसजत्यतः ॥ ... मुखविपुला.(सं० स्त्री०) मातागृत्तभेद, आर्याछन्दका एक नाज तनुर्क भ्या मुखव्या तगादिशेत् ॥". ' भेद। इसे केवल विपुला भी कहते हैं। इसके प्रथम चरणमें १८, द्वितीय, १२, तृतीयमें १४ और चतुर्थमें १३ / फ्रोध और परिश्रमसे कुपित घायु पित्तके सांप मालाएं होती हैं। इसका लक्षण इस प्रकार है मिल कर मुखदेशका आश्रय लेनी है। उससे चेहरे पर . "संसह गणत्रयमादिम' शकलयो योर्मवति पादः।। छोटी छोटी काली कुसियां निकल माती हैं इसोको - यस्यास्ता पिङ्गलनागो विपुलामिति समाख्याति ॥" । मुखव्यङ्ग कहते हैं। इसके निकलनेसे मुंग्वको शोमा __ (छन्दोम०)। विगड़ जाती है। इस रोगमें किसी प्रकारका काट नहीं मुखविलुण्ठिका ( सं० स्त्री० ) मुखेन बिलुण्ठयतीति होता। 'लुण्ठ-णिच-ण्वुल स्त्रियां टाप, अत इत्वं । छागी, ____ इसकी चिकित्मा !-शिराधेध, प्रलेप और अम्पर - यकी। द्वारा यह रोग शान्त होता है। परगवकी कली और मसूरको एकल पीस कर मुसमें लगानेसे यह रोग चंगा • मकारादिक्षकारान्तमनुलोमविलोमतः । होता है। फिर मधुके साथ मंजीठको घिस कर प्रलेप उच्चार्य परमेशानि मुखवाय शुचिस्मिते ।। देने अथवा परहेका लेह लगानेसे मी मुलाप्य रोग सविन्दु वर्गामुच्चार्य पञ्चाशत् मातृको पिये। जाता रहता है। यगणपक्षको छालको बकरेके मूतसे अनुलोमविलोमेन सर्वेण च वरानने ।। पीस कर उसका प्रलेप, जातीफलका प्रलेप, अकयनफे अनेनेव विधानेन मुखवाय' करोति यः। दूध और हल्दीको पकन पीस कर उसका प्रलेप देनेस स सिदः सगणः छोऽपि स शिवो नात्र संशयः ॥ पुराना मुखश्यङ्ग भी नष्ट होता है । मसूरको दुध पोस कर मृत्युञ्जयोऽहं देवेशि मुखवाद्यप्रसादतः । घोफे साथ प्रलेप देनेसे मुन्नध्या नट होता है तथा पन. • यस्मिन् काले महेशानि भमुरो पानयान भवेत् ॥ की तरह मुखकान्ति हो जाती है। परगदको ; कही तस्मिन् काले महेशानि मुखवाय करोम्यहम् । पत्तियां, मालतीका फल, रनचन्दन, कुट, कालीयक और तत् श्रुत्या परमेशानि भमुरा रामसाथ ये। लोध्र इन सब दम्पोका प्रलेप भी इस रोग बहुत दिन. • पळायन्ते महेशानि तत् भुत्या परमेश्वरि ॥" | कर है। मलाया इसके पुषुमादि तेरो मुमें लगाने निशानन ८ पटल) से मुखम्यादि रोग दूर होता है तथा चन्द्रमा समान Pol, AIII. 183