पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/११

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प्रथम अध्याय


शिष्टाचार का विचार किया जायगा। शिष्टाचार का मूल अर्थ जो शिष्टा का आचार है उसी की दृष्टि से हम इस विषय का विवेचन करने का प्रपक्ष करेंगे।

शिष्टाचार धर्म के समान (और उसी के अन्तर्गत ) मनुष्य का एक विशेष चिह्न है। इस गुण से मनुष्य की शिक्षा, सुरुचि और सभ्यता का परिचय मिलता है। शिष्टाचार व्यक्ति अपने कुल जाति और देश की एक शोभा है। शिष्टाचार से अधिकांश मनुष्य के स्वभाव की भी जांच हो जाती है। इस गुण का पालन करने-वाले के प्रति लोगों का श्रद्धा, विश्वास ओर आदर होता है और वह अपने गुणो से दूसरो में भी यही गुण उत्पन्न करने की क्षमता रखता है । विनय और नम्रता में ऐसा प्रभाव है कि यदि मनुष्य इनका उपयोग अपने आत्म-गौरव के साथ साथ करे तो एक बार उसका शत्रु भी पूर्व-संस्कार छोड़कर उसके गुणों पर मुग्ध हो सकता है। विनयी व्यक्ति के साथ अगिष्ट मनुष्य भी सहसा अशिष्टता का व्यवहार करने का साहस नहीं कर सकता । शिष्ट व्यवहार मनुष्य के अस्थिर चित्त को शांत कर उसे विचार करने का अवसर देता है और उससे अपनी भूलों पर सहर्ष पश्चाताप भी करा सकता है। सारांश यह है कि शिष्टाचार शील के समान मनुष्य का एक भूषण है।

जो शिष्टाचार सोभा से अधिक हो जाता है उससे बहुधा दोनों और हानि होती है । इस अवस्था में मनुष्य या तो सकोंच के कारण स्वयं अड़चन में पड़ता है अथवा अति शिष्टाचार से वह अपने व्यवहारी को अप्रसन्न कर देता है । अतएव अति शिष्टाचार की अवस्था से बचने को सदैव चेष्टा करनी चाहिये और यदि इस विष भावस्था से किसी समय विशेष हानि होने की संभावना हो तो उस समय शिष्टाचार का थोड़ा-बहुत अपकर्ष क्षमा के योग्य है । इस