सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
छठा अध्याय


णाम उपस्थित होते हैं। कोई भी आदमी, चाहे वह गाढ़ा मित्र क्यो न हो, हँसी के द्वारा किया गया अपना प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष अपमान सहन नहीं कर सकता और जब वह उसका बदला लेने का प्रयत्न करता है तब परस्पर की खीचा-तानी से अवस्था भयङ्कर हो जाती है, इसलिये हँसी दिल्लगी को जिसमे बहुधा व्यति-गत आक्षेप रहता ही है सर्वथा त्याज्य समझना चाहिये । कहा भी है— “हँसी लडाई को जड़ है" । हंँसी मजाक का दोष बहुधा तरुण मित्रो में पाया जाता है, परन्तु कभी-कभी बड़ी उमर-वाले और सयाने लोग भी इस दुर्गुण के दास हो जाते हैं।

मित्र के कामो को कभी सन्देह की दृष्टि से न देखना चाहिये। यदि तुम्हारा मित्र सच्चा है तो तुम्हारे साथ कभी कपट न करेगा। मित्र के कपट का एक-दो बार परिचय मिलने पर समझना चाहिये कि यह व्यक्ति मित्रता के योग्य नहीं है। ऐसे मनुष्य से धीरे-धीरे और बड़ी चतुराई के साथ घनिष्टता का सम्बध कम करना चाहिये, जिससे कुछ समय के पश्चात् उससे केवल शिष्टाचार का सम्बन्ध रह जावे ओर वह प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारा शत्रु न बने । संसार में बिना कारण के किसी को शत्रु बना लेना मूर्खता का कार्य है । यदि मित्र की ओर से किसी प्रकार का सन्देह हो तो उसे मन में छिपाकर रखने के बदले किसी अवसर पर प्रकट कर देना और उसकी सफाई कर लेना अधिक चतुराई की बात है। यदि सन्देह मन मे भरा रहे और अन्य मिथ्या कारणो से उसकी वृद्धि हो जावे तो परस्पर बुरे भाव उत्पन्न होंगे जिसका परिणाम दोनो ओर हानिकारक होगा।

यदि मित्र में ऐसे दोष हों जिनसे मित्रता की वृद्धि में बाधा पहुँचती हो, तो मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र के इन दोषों को धीरज और बुद्धिमानी से दूर करने का प्रयत्न करे । यदि