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छठा अध्याय

विद्या-मय हैं प्रकट अति, चतुर, बहुथुत, विज्ञ ।
पर वर्ण-क्रम से निपट, निकल पड़े अनभिज्ञ ।।

विद्वानो के साथ अथवा विशेषज्ञो के साय वाद विवाद करने- वालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि केवल तर्क और युक्ति ही से काम नहीं चल सकता, उसके लिए शास्त्र ज्ञान की भी आवश्यकता है। विना पूर्ण ज्ञान के, विद्वानो से भिड़ना बड़ी मूर्खता है । रहीम कवि ने कहा है,

करत निपुनई गुन चिना, रहिमन निपुन हजूर ।
मानो टेरत विटप चढ़ि, इहि प्रकार हम फर ॥

कोई-कोई साधु महात्मा बड़े विद्वान होते हैं। उनका आदर- सत्कार विद्वानो से अधिक करना उचित है, क्योकि उनमे विद्वानो से एक अधिक गुण (संसार-त्याग) रहता है। आज-कल मूर्ख और कपटी साधुओं की अधिकता है। इसलिये इन लोगों से सावधान रहना चाहिये । यद्यपि इन धूर्तों के साथ आदर-सत्कार करने के व्यवहार का अवसर बहुत कम आता है, तथापि इनका प्रकट रूप से अनादर करना आवश्यक नहीं है। इनके साथ अवसर आने पर उदासीनता का व्यवहार किया जावे। सच्चे साधु महात्माओं से बिना किसी विशेष प्रयोजन के उनकी पूर्व जाति, वृत्ति अथवा वैराग्य का कारण पुछना असभ्यता है। पर सदिग्ध अवस्था में साधु-वेष धारी लोगो से जांँच के लिए ये सब बातें पूछी जा सकती हैं। साधुओं के निश्चित कार्यक्रम में बाधा डालना ठीक नहीं है। उन्हें नियम के विरुद्ध अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन कराना अथवा सुख-चैन में रखना उचित नहीं है। उनके सामने गृहस्थाश्रम के सुखो की चर्चा करना भी अशिष्टता है।