पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११२
हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


किसी के लिए भी शोभा-प्रद नहीं है। विद्वानों के मत को थोथी युक्तियो के आधार पर खंण्डित करने का प्रयत्न करना उपहास-जनक है। थोड़ी विद्या-वाले को विद्वान के साथ वाद-विवाद करना भी शोभा नहीं देता। यदि किसी विद्वान से उच्चारण अथवा तर्क की कोई भूल हो जावे, तो उसके कारण विद्वान मनुष्य की हँसी उड़ाना अथवा भूल पर अनुचित कटाक्ष करना असभ्यता है।

विद्वान की गति विद्वान ही जान सकता है,मूर्ख नहीं, इसलिये यदि कोई मूर्ख किसी विद्वान का अनादर कर दे तो उससे किसी शिक्षित व्यक्ति को प्रसन्न होने के बदले दुखित होना चाहिये । जो लोग विद्वानो का अनादर करते हैं वे शिक्षित समाज मे निन्दनीय समझे जाते हैं । यदि कोई मनुष्य स्वयं विद्वान होकर अथवा अपने को। विद्वान समझकर दूसरे विद्वान की अवहेलना, अनादर अथवा घृणा की दृष्टि से देखे तो उसकी विद्वत्ता को निम्नकोटि की समझना चाहिये।

कभी कभी कुछ लोग अपनी प्रभुता बढ़ाने के विचार से विद्वानो की समता अथवा अवहेलना करते हैं । ये लोग ऐसा समझते है कि विद्वानों का तिरस्कार करने से दूसरे लोग हमे विद्वानो से श्रेष्ठ समझेंगे, पर यह उनकी भूल है । जो मनुष्य सच्चा गुण-ग्राहक है और जिसमे सच्ची सद् बुद्धि है, वह विद्वानो के अपमानकारी को तुच्छ ही समझेगा, चाहे वह अपनी विद्वत्ता का कैसा ही ढिंढोरा पीटे । ऐसे ही आत्म-प्रशंसा के लोभ में कुछ अल्पज्ञ लोग बहुतों के मत का खण्डन करने की ढिठाई करते हैं। वे समझते हैं कि विद्वानो से भिड़ने पर जीते भी जीत है ओर हारे भी जीत है, पर यह समझना अल्पज्ञों की बड़ी भारी भूल है । कितना ही प्रयत्न किया जावे, तो भी मनुष्य की अल्पक्षता छिप नहीं सकती और विद्वान के सामने बात-बात पर उसे अपने अल्पज्ञान के कारण मोन धारण करना पड़ता है। किसी ने ठीक कहा है,