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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


ष्टता होने पर भी विनोद की मात्रा सभ्यता-पूर्ण रहे। किसी विषय पर निवेदन करते समय दूसरे लोगो के विरद्ध अथवा अपने पक्ष में केवल उतनी ही बातें कही जानें जिनसे उस विषय का सम्बन्ध हो। इससे अधिक आत्म प्रशंसा अथवा पर-निन्दा के लिए शिष्टाचार में स्थान नहीं है । यद्यपि अधिकांश राजकीय कार्य पत्र-व्यवहार ही से निष्पन्न करना उचित और आवश्यक है तथापि कई-एक बातें आपसी भेंट मुलाकात में सरलता पूर्वक निश्चित हो सकती है; इसलिये राजकर्मचारियों से कभी-कभी मिलने की आवश्यकता होती है।

अधिकारियों के पास उचित पोशाक पहिनकर जाना चाहिये। यदि किसी दरवार में जाने का प्रयोजन हो तो दरवार के नियमो के अनुसार विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करने की आवश्यकता है। विशेष करके विद्वानों के लिए सर्वसम्मति से जो पोशाक निश्चित की गई हो वही उनको धारण करना चाहिये।

न्यायालय में जो कुछ पूछा जावे उसका उत्तर स्पष्ट रीति से और सभ्यता-पूर्वक देना चाहिये । न्यायाधीश की निष्पक्ष आज्ञा मानना परम आवश्यक है, इसलिये जिस समय वह किसी से शान्त होने को कहे तो उस समय उसे शान्त हो जाना चाहिये । न्यायालय में किसी उत्तर-दायी कर्म-चारी की आज्ञा के बिना कोई कागज पत्र पढ़ना अथवा उठाना-धरना केवल शिष्टाचार के ही विरुद्ध नहीं, किन्तु कानून के भी खिलाफ है । न्यायाधीश को अपमान जनक उत्तर देना भी एक अपराध है, इसलिये उसके अप्रसन होने पर भी उसे वैसी ही अप्रसन्नता से उत्तर न देना चाहिये । यदि किसी न्यायाधीश के न्याय से किसी को असन्तोष हो तो उसके लिए उचित न्याय के निमित्त दूसरा बड़ा न्यायालय खुला रहता है।

अधिकांश राज-कर्मचारी दौड़े पर जाकर देहातो में बड़ा ही अनुचित व्यवहार करते हैं। ये लोग गरीब ग्रामीणों से केवल बेगार