रूप से अनविकार चर्चा करना उचित नहीं । कोई कोई सम्पादक किसी
लेखक से कारण वशात् अप्रसन्न होने के कारण विरुद्ध समालोचना
कर बैठते हैं, यह कार्य अशिष्टता-मय है । जो सम्पादक जिस
विषय को न जनता हो—सभी सम्पादक सर्वज्ञ नहीं होते—उसे
उस विषय मे अपनी सम्मत्ति देने की धृष्टता न करनी चाहिये ।
इसके लिए उचित उपाय यही है कि सम्पादक उस विषय की
समालोचना किसी विशेषज्ञ से कराने और उसके साथ समालोचक
का नाम लिख देवे । यदि समालोचक चाहे तो उसके यथार्थ नाम
के बदल कोई करिपत नाम छाप दिया जावे । कई एक सम्पादक
समालोचना के लिए भेजी गई उपयुक्त पुस्तको की प्राप्ति भी
स्वीकृत नहीं करते और स्वार्थ वश कभी-कभी उनकी समालोचना नहीं छापते । यह व्यवहार निन्दनीय है।
किसी-किसी मासिक पत्र में ऐसे-ऐसे समालोचको के नाम छापे जाते हैं जिन्हें पत्रों के विद्वान पाठक समालोचना करने के योग्य नहीं समझते। ऐसे समालोचको से समालोचना कराकर और उसके साथ उनका नाम छपाकर सम्पादक लोग प्रत्यक्ष रूप से अपने पत्रो की प्रतिष्ठा घटाते हैं और परोक्ष रूप से योग्य लेखको का अपमान करते हैं। साथ ही वे पत्र के पाठको पर भी एक प्रकार का मानसिक अत्याचार करते हैं। कई एक सम्पादक ऐसे देखे जाते हैं जो स्वय पुस्तक-प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और साथ ही सम्पादक तथा विज्ञापक भी हैं। ऐसे लोग भला दूसरो की पुस्तको की उचित समालोचना कब कर सकते हैं। कई समालो चक अश्लीलता तक का उपयोग कर बैठते हैं और अपनी विचार- शैली से गुगडो के पद को भी पार कर जाते हैं।
लेखकों को ऐसे विषय पर लेखनी चलाना उचित नहीं जिनका
उन्हें अच्छा ज्ञान न हो । आज-कल हिन्दी में कई एक लेखक इसी