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सातवांँ अध्याय


विदेशी भाषा सीखना प्रत्येक विद्वान और व्यवसायी का कर्त्तव्य है। शब्द शास्त्रियों के लिए तो अनेक भाषा का ज्ञान अनिवार्य है।

कई हिन्दुस्थानी लोग उर्द-भाषा बहुधा इसलिये पढ़ते हैं कि ये उर्दू की प्रेममयी (आशिगना) गजल गावें और मुसलमानों के साथ लच्छेदार बातचीत करें। यह प्रवृत्ति निन्दनीय है। हाँ, जो लोग इस विचार से उर्दू का अध्ययन करें कि हम उर्दू और हिन्दी का यथार्थ अन्तर समझे, अपने विषय मे मुसलमान-लेखको का मत जाने अथवा उस भाषा की सुन्दर रचनाओं को अपनी मातृ भाषा में अनुवादित करें, उनका यह प्रयत्न अवश्य सराहनीय है। तथापि जो लोग विदेशी भाषा के प्रति आदर और मातृभाषा की और उदासीनता प्रगट करते हैं उनका यह विचार केवल शिष्टाचार ही के विरुद्ध नहीं, किन्तु नीति, समाजादश और राष्ट्र निम्माण की दृष्टि से भी निन्दनीय है।

जहाँ अपनी मातृ भाषा बालने से काम चल सकता है वहाँ विदेशी भाषा बोलना अशिष्टता है। सम्भाषण में अनावश्यक विदेशी शब्दों को बीच बीच में बोलना भी एक प्रकार को अशिष्टता है। कई एक हिन्दुस्थानी अफसर अपने सहायक कर्मचारियों के साथ अंगरेजी में अनावश्यक बात-चीत करना अपना गौरव समझते हैं। पर यह उनकी भूल है । कभी-कभी तो ऐसा विचित्र दृश्य देखा जाता है कि एक मनुष्य हिन्दी में बात करता है और दूसरा उसको अंगरेजी में उत्तर देता है। कई एक अँगरेजी पढे उच्च कर्म- चारी थोड़ी अंगरेजी जानने वाले अपने हिदुस्थानी भाई के साथ अंगरेजी में बात करके उस अल्पज्ञ सज्जन को व्यर्थ हो सकोच में डालते हैं जिससे उसे विवश होकर टूटी फूटी विदेशी भाषा बोलनी पड़ती है। जो मनुष्य किसी विदेशी भाषा को शीघ्रता पूर्वक न बोल