कई पीढ़ियों से सच्चित होती है और मनुष्य के जीवन में अनेक
वर्षों तक बढ़ती है। यथार्थ में धर्म का सम्बन्ध जितना मनुष्य की
बुद्धि से नहीं है उतना उसकी भावुकता से है। यदि हृदय में ईश्वर
के प्रति सच्ची प्रीति है और उसके प्राणियों की ओर सच्ची दया
हैं तो इस बात की कोई चिन्ता नहीं है कि मनुष्य हिन्दू कहलावे
अथवा मुसलमान । इतना होने पर भी यह परम आवश्यक है कि
मनुष्य सहसा अपने कुल के धर्म से कभी वाहर न हो।
कई लोग अपने धर्म की बड़ाई और दूसरे के धर्म की निन्दा किया करते हैं । ये दोनो बातें शिष्टाचार के विरुद्ध हैं। अनेक धर्मान्ध और सकीर्ण हृदय-वाले लोग तो यहांँ तक समझते हैं कि केवल उन्हीं का धर्म संसार में श्रेष्ठ है और दूसरे के धर्म में कोई सार ही नहीं। उनकी समझ में जो लोग पूर्व को मुख करके ईश्वर की प्रार्थना करते हैं वे पापी और अशिक्षित हैं। ऐसे मूर्ख तो यहां तक समझते हैं कि उनका ईश्वर और है और दूसरों का और । असभ्य लोग तो एक दूसरे के ईश्वर को गालियां तक सुना देते हैं। ये मूर्ख केवल अपनी ही नहीं, किन्तु अपने धर्म की भी निन्दा कराते हैं। ईश्वर का ज्ञान और उसकी भक्ति ऐसे विषय नहीं हैं जो किसी एक जाति के ठेके में आये हों। ऐसी अवस्था में मनुष्यों को एक दूसरे के धर्म की ओर अनादर-भाव कभी न प्रकट करना चाहिये।
यद्यपि धर्म के अनेक नियम और सिद्धान्त शास्त्रार्थ तथा वाद-
विवाद से सरलता-पूर्वक जाँचे जा सकते हैं और विद्वानो को
इस प्रकार की जांच अवश्य करना चाहिये, तथापि बिना प्रयोजन
के धर्म-सम्बन्धी विषयो मे वाद-विवाद उपस्थित करना अनुचित
है । हम लोग पाद विवाद करके किसी से भी ऐसा धर्म स्वीकार
नहीं करा सकते जिसमें उसकी श्रद्धा न हो और जिसमे केवल बल का प्रयोग किया जावे। यदि कोई मनुष्य किसी से बल पूर्वक कोई