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पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१६६

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हिन्दुस्तानी शिष्टाचार


हुए लोगो को फिर अपने धर्म में मिला लेवें। विदेशी धर्म की पुस्तक भले ही पढ़ी जावे, पर उनमें लिखी हुई ऐसी बातें कभी ग्रहण न का जावें जो पढ़ने वाले के धर्म के प्रतिकुल हो ।

अपने धर्म को पालना, दूसरे के धर्म से उसका बचाना, और धर्म के लिए आवश्यकता पड़ने पर तन मन-धन अर्पण करना प्रत्येक सभ्य और शिष्ट व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई-कोई मनुष्य कुछ बातें एक धर्म की और कुछ बातें दूसरे धर्म की मानते हैं । यद्यपि यह प्रवृत्ति नीति, स्वतन्त्रता और ज्ञान की दृष्टि से उचित मानी जा सकती है तथापि शिष्टाचार को दृष्टि से ऐसा करना उपहास-योग्य समझा जाता है। हाँ, यदि किसी महात्मा ने किसी ऐसे धर्म की स्थापना की हो जिसमें कई धमों के सिद्धातों का, समावेश किया गया हो तो उसके अनुयायी का कर्तव्य है कि वह अपने धर्म को उसी रूप में माने ।

कोई कोई विद्वान लोग यथार्थ में नास्तिक हो जाते हैं अथवा अपने को नास्तिक कहने मे अपना गौरव मानते हैं । इन नास्तिकों की देखा-देखी बहुधा नव-युवक लोग भी जिनको ससार का अथवा किसी एक धर्म का बहुत कम अनुभव रहता है अपने को नास्तिक कहने लगते हैं और ईश्वर के विषय में बहुधा पुरानी और थायी युक्तियाँ उपस्थित करते हैं। ऐसे लोगो को सोचना चाहिये कि ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना अथवा सण्डित करना घड़ी विद्वत्ता का काम है, इसलिये उन्हें ऐसी अनर्गल बातें करना उचित नहीं । उन लोगों को सदैव इस बात का स्मरण रखना चाहिये कि जिस धर्म में ईश्वर की पूजा के लिए स्थान नहीं है यह धर्म मिथ्या है।

॥ इति ॥



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