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सातवां अध्याय


धर्म स्वीकार करानेका तो अवसर आने पर अथवा अधिक ज्ञान प्राप्त होने पर वह ऐसे निर्दयी धर्म को छोड़ देगा।

धर्म बदलने से लोगों को अनेक हानियां हैं। इसमे केवल पूर्वजों की और उनकी ही निंदा नहीं होती, किन्तु आगे लडकों बच्चों को अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है, इसलिये किसी भी मनुष्य को धर्म परिवर्तन करके अपनी समाज और सन्तान को संकटावस्था में न डालना चाहिये । राजनीतिक कारणों से भी धर्म- परिवतन दूषित समझा जाता है। हमारे देश के कई राजा लोग इतने असभ्य और अशिष्ट हैं कि ये अपनी प्रजा के धर्म को जिसके ये प्रतिनिधि हैं पूर्ण रूप से नहीं मानते । यथाथ में प्रजा की अपेक्षा राजा को अपने धर्म का अधिक पालन करना चाहिये । ये लोग बहुधा अपनी निरड्कुशता के कारण प्रजा की आदर दृष्टि से गिर जाते है । विलायत में राजा को उसी धर्म का अनुयायी होना पड़ता है जिसके मानने वालों की संख्या अधिक रहती है और यदि वह किसी दुसरे धर्म में चला जाय तो उसका राज्याधिकार दिन जाता है।

मनुष्य को विदेशी धर्म के आक्रमण से अपने धर्म को सदैव बचाना चाहिये और इस बात की चिन्ता रखना चाहिये कि उसके सहधर्मी लोग दूसरे के धर्म की ओर प्रवृत्त तो नहीं हो रहे हैं ? यदि कोई भयभीत होकर दूसरे के धर्म का स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाये, तो सब को उस व्यक्ति की रक्षा करना चाहिये। केवल नवीनता के विचार से अथवा दूसरे धर्म वालो की सेवा- शुश्रूषा से भी अपना धर्म छोड़ देना असभ्यता है। बहुधा विदेशी धर्मवाले अपने धर्म का प्रचार करने के लिए अनेक प्रकार के मनोहर उपाय करते हैं जिनके वश मे होकर कभी कभी हमारे नव- युवक भाई भटक जाते हैं पर उन्हें वहुधा पीछे पछताना पड़ता हैं। धम की व्यवस्था देने वालों का कर्तव्य है कि वे ऐसे भटके