रुकावटो का सामना करना पडता है जो उसके कार्यों की सफलता में विघ्न डालती हैं। मनुष्य संसार से विरक्त होकर वन में रहने पर भी स्वाधीनता प्राप्त नहीं कर सकता, क्योकि वहाँ भी कई बातों के लिए उसे दूसरों पर अवलवित होना पड़ेगा। इसलिए
एक विद्वान ने स्वाधीनता का यह लक्षण कहा है कि “दूसरो को
किसी तरह की हानि न पहुँचाकर और अपने हित के लिए किये
गये दुसरे के यत्न में बाधा न डालकर, जिस तरह से हो उस तरह,अपने स्वार्थ साधन की स्वतन्त्रता का नाम स्वाधीनता है"। यदि दूसरो की स्वतन्त्रता का विचार न किया जाय तो मानवी और
पाशविक स्वतन्त्रता में कोई अन्तर न रहे। अतएव शिष्टाचार
स्वाधीनता का वाधक नहीं हो सकता, वरन वह इसका साधक
होता है। नियमानुसार काम होने पर प्रत्येक मनुष्य को अपना
काम निर्विन रीति से सम्पन्न करने का अवसर प्राप्त होता है और
यही सुभीता यथार्थ में सच्ची स्वतन्त्रता है। यदि हम मनमाना
काम करके दूसरों के कार्यों में वा विचारो में वाधा डालेंगे तो यह
कब सम्भव है कि दूसरे लोग हमारे कार्यों वा विचारो में वाधा
न डालें अथवा हम अपने इस आचरण से स्वंय अपनी ही
स्वतन्नता स्थिर रख सकें? दूसरो की बातो में हस्तक्षेप करने में
हम स्वयं अपनी अनुचित प्रवृत्तियों के दास बन जाते हैं । तब हमारी यथार्थ वा कल्पित सच्ची स्वतन्त्रता कहाँ रही? इस दृष्टि से
आज्ञापालन, मनोदमन, मधुर भाषण आदि गुणों को स्वाधीनता
का साधक मानना पड़ेगा। समाज में रहकर यदि हम उसके
साथ उचित व्यवहार न करेंगे तो समाज हमारी रक्षा न करेगा
अथवा हमसे “शाप वा चाप" के द्वारा उचित वर्ताव करावेगा।
यदि हम समाज की आज्ञा न मानेंगे तो समाज के काम-काज में
गड़बड़ होगी और उस अन्यवस्या का फल हमे भी भोगना पडेगा।
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