पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१९

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प्रथम अध्याय


यह कभी नहीं हो सकता कि हम एक समाज को छोड़कर किसी दूसरे समाज में न जाये, क्योकि समाज में रहना एक स्वाभाधिक प्रवृत्ति है । तब हम नियमपूर्वक चलकर ही अपनी तथा अपने समाज की स्वतन्त्रता को रक्षित रख सकते हैं। विद्वानो ने कहा है कि “नियम स्वतन्त्रता का प्राण है"।

( ५ ) शिष्टाचार और सत्यता

कुछ लोगों की यह धारणा है कि शिष्टाचार एक मिथ्या व्यवहार एक ओर शिष्टाचारी व्यक्ति परोक्ष रूप से सत्यता का तिरस्कार करता है। इस में सन्देह नहीं कि शिष्टाचार में बहुधा अप्रिय और अनावश्यक सत्यता प्रगट नहीं की जाती, तथापि सत्य का यह लोप झूठ बोलने अथवा धोखा देने की प्रवृत्ति से नहीं किया जाता। शिष्टाचार का प्रधान उद्देश्य दूसरो को सुभीता और संतोष देना है, अतएव जिस समय सत्यता से किसी को व्यर्थ हानि अथवा अप्रसन्नता प्राप्त होने की संभावना हो, उस समय सत्यता को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसी अवस्था में मनुष्य उदासीनता ( मोन )धारण करके ही मूर्ख अथवा अशिष्ट होने से बच सकता है।

नीति और धर्म की दृष्टि से भी प्रत्येक अवसर पर सत्यता को प्रगट करने की आवश्यकता नहीं मानी जाती । यदि किसी सत्य को प्रगट करने से व्यकि-गत आक्षेप अथवा किसी का अपमान होने की संभावना हो तो सत्य बात प्रगट करना अनुचित है। इसी प्रकार यदि उससे प्रत्यक्ष रूप में हानि अधिक और लाभ कम होने का भय हो तो उसे प्रगट करना मूर्खता है। इसके सिवा अधिकाश लोग सत्य को भी एकाएकी सत्य नहीं मानते, क्योकि वे साधारण व्यवहार में बहुधा असत्य, अतिशयोक्ति और अर्ध-सत्य सुना करते हैं । अतएव शिष्टाचार की द्वष्टि से सत्य को बिना सोचे विचारे अथवा निर्भय होकर प्रगट करने में जोखिम है। कभी-कभी