असुविधा होती है, इसलिए ये कार्य अधिकाश मे वज्र्य हैं। सभाओ में बीडी आदि पीना भी निन्ध है।
व्याख्याता को इतने जोर से बोलना चाहिए जिसमे सब श्रोता उसका भाषण सुन सके और ऐसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए जिसे अधिकांश श्रोता समझ सकें। बोलने में शीघ्रता न की जावे और शब्दों तथा अक्षरों का उच्चारण स्पष्टता से किया जावे । यथा-सम्भव भाषा में प्रान्तीयता को दूर रखना चाहिए । भाषण में व्यक्तिगत आक्षेप करना अथवा ऐसे दृष्टान्त देना जिनसे श्रोताओ के हृदय पर आघात पहुँच सकता है असभ्यता का लक्षण है। वक्ता को अपने विषय के भीतर ही बोलना उचित है और उसे अपना व्याख्यान इतना न बढ़ाना चाहिए कि वह श्रोताओ को अरुचिकर हो जाय । व्याख्यान में अधिक हँसाना या रुलाना भी अनुचित समझा जाता है।
सभाओ के प्रबन्धकों को यह देखना चाहिए कि सब लोगो के बैठने तथा हवा और उजाले का ठीक प्रबन्ध है या नहीं । निमंत्रित तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों के स्वागत का और अन्यान्य लोगो को सभा-स्थान का मार्ग दिखाने का भी प्रबन्ध होना चाहिए । जहाँ तक हो सभाओ में स्वयं सेवकों की उपस्थिति अपेक्षित है। इन कार्य-कर्ताओं को अपने सद्व्यवहार में अपने कर्तव्य की शोभा बढ़ानी चाहिए । जो काम इन्हें सौंपा गया हो अथवा जिस उद्देश्य से इनकी नियुक्ति की गई हो उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए इन्हें प्रयत्न करना चाहिए । सभा-कार्य में अयवस्था होने पर प्रबन्धको के साथ साथ स्वयंसेवक लोग भी दोषी ठहराये जा सकते हैं। इन लोगों में वचन माधुरी और क्रिया चातुरी अवश्य होनी चाहिए ।
सभाओ के विषय के साथ साथ यहांँ पाठशालाओं के शिष्टचार
का भी विचार करना उपयुक्त होगा । यद्यपि पाठशालाओ में