भोजन और पात्रावली की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान दिया जाय । किसी भी प्रकार की और किसी भी वस्तु की अस्वच्छता से अमृत रूपी व्यन्जन भी विष मय हो सकता है और उसे खाने-वालो के जी बिगड जा सकते हैं। किसी किसी भोज मे तो यहाँ तक देखा और सुना गया है कि भोजन के पश्चात् ही अधिकांश लोग बीमार हो गये और कई एको को प्राण तक दे देने पड़े।
पक्ति में बैठकर अपने साथियो की अपेक्षा जल्दी भोजन समाप्त कर लेना अनुचित और अशिष्ट है। यदि किसी का आहार दूसरो से कम है और यह बात स्वाभाविक है तो उसे धीरे धीरे (थोडा थोड़ा) भोजन करना चाहिए।
भोजन करने वालो को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि पत्तल में न तो बहुत सी सामग्री छोडना चाहिए और न पत्तल को बिलकुल साली रखना चाहिए । पर ये बातें अधि- कांश में परोसने वाले की चतुराई पर निर्भर हैं।
परोसने में साधारण से कुछ अधिक आग्रह की आवश्यकता अवश्य है, पर ऐसा कभी न होना चाहिए कि अनेक बार नाही करने पर भी किसी के आगे बहुत सी सामग्री पटक दी जाय । इससे भोजन करने-वाले को प्रसन्नता के बदले संकोच और खेद होता है, और साथ ही बहुत सी सामग्री व्यर्थ जाती है।
भोजन के उपरान्त पाहुनो को गृह-स्वामी के यहाँ कुछ समय
तक बैठना चाहिए और उस समय गृह-स्वामी को पान-सुपारी से
उनका आदर करना चाहिए । फिर उन्हें चुने हुए शब्दों में गृह-
स्वामी के प्रबन्ध को प्रशंसा करके तथा उसकी कठिनाइयों के प्रति
समवेदना प्रगट करके उससे विदा लेनी चाहिए ।