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चौथा अध्याय


इसलिये इन लोगो के साथ उचित व्ययहार करने में बड़ी दूरदर्शिता ओर सावधानी की आवश्यकता है। लोगो को चाहिए कि जहाँ तक हो अपने जातिवालो ओर सम्बन्धियो में धन, पदवी ओर विद्या के कारण उँचाइ निचाइ का विशेष अन्तर न मानें, और सब के साथ यथासम्भव प्राय एक ही सा प्रेम पूर्ण व्यवहार करे । जाति के साधारण से साधारण मनुष्य को भी इस बात का भन न होने पाये कि जाति का दूसरा मनुष्य मेरी हीनता के कारण मुझे तुच्छ समझता है । जातीय सभाओं में भी, जहाँ तक हो, गरीब अशिक्षित तथा साधारण स्थिति-बाले व्यक्तियों को भी जान-बुझकर, नीचा स्थान न दिया जाय । जाति के बड़े लोगो का यह कर्तव्य है कि ये अपने साधारण स्थिति-बाल भाइयों को, सुख-दुख में उनके घर जाकर अपने प्रेम का परिचय देवे। यदि ऐसा न किया जायगा तो जाति-बन्धन दृढ़ नहीं रह सकता।

जाति-वालो के यहाँ से किसी आवश्यक कार्य का निमंत्रण आने पर उसका पालन अयश्य किया जाय । यदि किसी विशेष कारण मे निमंत्रण स्वीकृत करना इष्ट न हो तो इस बात की सूचना नम्रता पूर्वक दे देनी चाहिए। किसी के यहाँ भोजन करते समय अथवा उसके पश्चात् रसोई के विषय में कोई कटाक्ष करना उचित नहीं, चाहे वह भोजन तुम्हारी रुचि के अनुकूल न हो। धनाढव लोगो को साधारण स्थिति के लोगो के यहांँ रुपये पैसे का व्यवहार देने में सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि व्यवहार का परिमाण दूसरे मनुष्य की स्थिति के अनुसार हो जिसमे उसे यह न जान पड़े कि मुझ पर धन का व्यर्थ दबाव डाला जाता है। उसका दिये जाने-वाले वस्त्र और दूसरे पदार्थ इतने बहुमूल्य न हो कि यह साधारण मनुष्य उनको धनवान के धन की प्रर्दशनी समझे। बातचीत में भी ऐसा कोई भेद भाय न दिखाई दे