अन्त।
"एकां लज्जां परित्यज्य त्रैलोक्यविजयीभवेत्
ततो निरयगामीस्याद्धि क्कृतः साधुवर्ज्जितः॥
(पद्मपुराणे)
यद्यपि फिर जीते जी हीराबाई कमलादेवी से नहीं मिली थी और न कभी उसने कोई चीठी ही लिखने का मौका पाया था, किन्तु जबतक वह जीती रही, उसने अ़लाउद्दीन पर यह बात ज़रा न खुलने दी कि, -"मैं [हीरा] कमलादेवी नहीं, बल्कि कोई दूसरी ही औरत हूं और मेरी लड़की देवलदेवी नहीं, बल्कि लालन है।" हां! यह बात उसने अ़लाउद्दीन पर उस वक्त ज़रूर प्रगट कर दी थी, जब वह पलंग पर पड़ा-पड़ा मौत का आसरा देख रहा था। साथही उसके, लालन ने भी बड़ी होशियारी से अपने भेद को छिपाया और अपना असली हाल कभी ख़िज़रख़ां पर ज़ाहिर नहीं किया था।
अ़लाउद्दीन के मरने पर उसके ग़ुलाम मलिक काफ़ूर ने ख़िज़रख़ां को कटवा डाला था और लालन उस [ख़िज़रख़ां] से लिपटकर जल्लाद की तलवार का निवाला हुई थी, पर उसने अपना असली भेद कभी किसी पर प्रगट नहीं किया था।