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पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/११

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गया था! यदि इस पर कोई यह प्रश्न करै कि,-'नव्वाब के दिल का हाल तुमने क्योंकर जाना?' तो उसका उत्तर हम इतना ही दे सकते हैं कि, "जहाँ न जायं रवि, वहां पहुंचे कवि।” बस यह उत्तर तो ठीक हुआ न?

दूसरा परिच्छेद,

संसार सुख।

"चक्रवत्परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च"

संसार बड़ा विलक्षण है, क्योंकि इसके घूमते हुए चक्र की धुरी का भेद कोई भी नहीं पा सकता। इसीसे जो कल दुखी दिखलाई देता था, आज सुखी दीख पड़ता है और जो आज सुखी है, कल उसकी क्या अवस्था होगी, इसे कौन कह सकता है!

इस बात को सौ डेढ़सौ बरस से भी अधिक बीत गए, जब वंगदेश के कृष्णनगर में महाराज धनेश्वरसिंह राज करते थे। इन के रामराज्य की उपमा इससे बढ़कर और क्या दी जा सकती है कि सारी प्रजा इन्हें पिता के समान मानतीं और ये भी प्रजाओं का पुत्र के समान पालन करते थे। जब कि राजा के लिये अपना सर्वस्व तो क्या, सिर तक दे डालना प्रजा का सनातन धर्म है, तो राजा का भी यहो कर्तव्य है कि वह प्रजाओं को पुत्र समान माने और रात दिन उनके दुःख दूर करने का यत्न किया करे। महाराज धनेश्वरसिंह में यही बात थी, इसी लिये सारी प्रजा राजा के सुख से सुखी और दुःख से दुखी होती और रात दिन यही सोचा करती कि,–'क्योंकर यह शरीर महाराज के काम आवे।'

महाराज धनेश्वरसिंह की स्त्री का नाम कमलादेवी था, जो साक्षात कमलादेवी ही थीं। महाराज धनेश्वरसिंह की महारानी में जिन जिन गुणों की आवश्यकता थी, महारानी कमलादेवी में वे सभी गुण कूट कूट कर भरे हुए थे; मानों विधाता ने इस जुगल जोड़ी को बना कर अपनी अनमेल सृष्टि का प्रायश्चित्त किया था।

कमलादेवी राजगृह के राजा लक्ष्मणसिंह की एकमात्र कन्या