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परिच्छेद)
२१
आदर्शरमणी।



करना फिर प्रारम्भ किया। इतने पर भी इतनी आमदनी नहीं होती थी कि वे तीनों जनी दुःख से दिन रात में एकबार भी आधे पेट खा सकें। तिस पर भी महीने में दस पांच बार ऐसा भी होता था कि कुसुम और चम्पा को कोरा उपास ही करना पड़ता, पर इस बात को वे दोनों कमलादेवी पर जरा भी प्रगट न करतीं और उन्हे कुछ न कुछ खिलाही देती थीं। क्या कुसुम के लिये यह थोड़ी बड़ाई की बात है कि उसने हज़ार कष्ट सहने, भांति भांति के दुःख झेलने और उपास पर उपास करने पर भी अपनी माँ को उनके आखिरी दिन तक कभी भी भूखी नहीं रहने दिया!!! ऐसी विपत में धीरज के साथ अपने धर्म को बचाए रखना कुसुम का ही काम था; और फिर उसी शहर में रह कर, जहां अवलाओं के लिये रावण सदृश दुराचारी सिराजुद्दौला नव्वाबी करता था!!!

निदान, आज बरस दिन पीछे मार्ग में कुसुम और बीरेन्द्र से फिर भेंट हुई और वे हाथी से कुसुम के प्राण बचा उसके घर चले; जिसका हाल हम ऊपर लिख आए हैं।

घर के पास पहुंच कर कुसुम ने बीरेन्द्र के हाथ में छोटी सी धनुष देख आश्चर्य से पूछा,-

"क्यों, जी! क्या तुम्हींने उस खूनी हाथी को मार कर मेरी जान बचाई है? वाह, यह गुन भी तुममें है! चलो, मां यह बात सुनकर बहुतही प्रसन्न होंगी। अहा! क्या मेरी जान बचने का हाल सुनकर मां को अपार आनन्द न होगा!!!"

बीरेन्द्र ने मुस्कुरा कर कहा,-

"सुनो, कसुम! यह सब हाल मां से जरा भी मत कहना क्योंकि उनकी जैसी हालत तुमने बतलाई है; उससे आज का हाल सुन कर उनकी हालत और भी खराब हो जायगी। देखना, भूलकर भी आज का कोइ हाल मां से न कहना।"

कुसुम ने कहा,-"अच्छा, जैसा तुम कह रहे हो, वैसा ही करूंगी। और हां, यह तो तुमने बतलाया ही नहीं कि इतने दिनों तक तुम कहां गोता मारे हुए रहे?"

बीरेन्द्र,-"चलो घर चल कर सब हाल तुमसे कहूंगा।"

इसके अनन्तर दोनों एक साथ ही घर के द्वार पर पहुंचे और कुसुम के पुकारने पर चम्पा ने भीतर से द्वार खोल दिया।