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२८
(पांचवां
हृदयहारिणी



अवस्था यद्यपि पच्चासी बरस से ऊपर पहुंच चुकी थी, पर तौभी व्यायाम और उचित आहार बिहार के कारण उन्हें कोई साठ बरस से ज्यादे उमरवाला नहीं कह सकता था। उनको एक पुत्र और एक ही कन्या थी। महाराज की स्त्री (महारानी) का नाम गिरिजादेवी था। यह मालदह के राजा की कन्या थीं। महाराज और महारानी में, जैसा चाहिए, उससे भी अधिक प्रेम था और दोनों बड़े आनन्द से इस लोक में ही स्वर्ग का सा सुख भोगते थे किन्तु अखण्डनीय काल की महिमा ने राजा रानी में वियोग करा दिया। यद्यपि गिरिजादेवी के लिये यह बात बड़े हर्ष की हुई कि वह अपने पति के सामने ही परलोक सिधार गईं किन्तु महाराज के हृदय में प्यारा पत्नी के बिछोह की ऐसी गहरी चोट लगी कि उन्होंने उसी समय राज्य का भार अपने युवा पुत्र को देकर काशीवास करने के लिये पश्चिम की यात्रा की।

महाराज महेन्द्र सिंह के सुयोग्य पुत्र का नाम नरेन्द्रसिंह था। ये सचमुच अपने नामानुसार नरेन्द्र की पदवी पाने के योग्य थे। उस समय इनकी अवस्था केवल इक्कीस बाईस बरस की थी, जब इनके पिता काशीवासी हुए थे। ये संस्कृत और फ़ारसी तथा शस्त्रविद्या में बड़े निपुण हो चुके थे और एक सुयोग्य युवराज के लिए जितने अच्छे गुणों की आवश्यकता है, उन सभों को ये पाचुके थे। महाराज महेन्द्रसिंह बाल्यविवाह के घोर बिरोधी थे; इसलिये अबतक नरेन्द्रसिंह कारे थे और इनकी तेरह चौदह बरस की बहिन का भी विवाह नहीं हुआ था। राजकन्या भी संस्कृत तथा फ़ारसी में और शस्त्रविद्या में अभ्यास रखती थी। उस राजकन्या, अर्थात् नरेन्द्रसिंह की छोटी बहिन का नाम लवङ्गलता[१] था।

पिता के काशी जाने पर नरेन्द्रसिंह को राज्य की चिन्ता के साथ ही साथ और भी सैकड़ों तरह की चिन्ताओं ने घेर लिया था, तो भी वे राजकाज को भली भांति से करते थे; किन्त बीच में एक बड़ी भारी दुर्घटना हो गई, जिसने नरेन्द्रसिंह को बड़े

  1. लवंगलता का हाल इस उपन्यास के उपसंहार भाग अर्थात् दूसरे उपन्यास में लिखा गया है। जिन्हें देखना हो, उस उपन्यास को डाकसे मंगाकर देखें। मूल्य ॥)