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पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/३९

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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी



अनाथिनी मां को छोड़कर तुम कहां अन्तर्धान रहे? क्यों, बेटा! जिसे तुम 'मां' पुकारते थे, उसकी दशा पर तुम्हें तनिक भी दया न आई? बेटा, बीरेन्द्र! यह बात मैं कुछ उलाहने के तौर पर नहीं कहती, बरन केवल हृदय का उद्वेग ही मुझसे ऐसी बातें कहला रहा है! अच्छा, जो कुछ हो, पर इस समय तुम भले अवसर पर आगए; क्यों कि जहां तक मैं समझती हूँ, अब मेरे दिन पूरे हुए ही समझने चाहिए। ऐसे समय में तुम्हारा आना बहुत ही अच्छा हुआ, क्योंकि तुम्हारे देखने की जो इच्छा मुझे बेचैन कर रही थी; उसने तुम्हें देखकर मेरा पिंड छोड़ा; इस लिये अब मैं सुख से मर सकेंगी और कुसुम के लिये मुझे अन्त में चिन्ता के आधीन होकर न मरना पड़ेगा!"

इससे अधिक वह और कुछ न कह सकी, क्यों कि निर्वलता के कारण उनका गला रुंध गया और दम फूलने लगा था। उनकी बातों ने बीरेन्द्र के हृदय को मथ डाला और उन्होंने बड़ी कठिनाई से कलेजा थामकर कहा,-

"मां! मेरा अपराध क्षमा कीजिए। हा! मेरी असावधानी ही से आपको यहां तक कष्ट भोगने पड़े। न जाने इस पातक से मुझे नरक में भी स्थान मिलेगा या नहीं? किन्तु हा! मैं अपनी विपत्ति का हाल क्या सुनाऊं कि जिसके कारण लाचार होकर मुझे आप की सेवा करने का अवसर नहीं मिला और बिना आपसे आज्ञा लिये ही यहांसे भागना पड़ा।"

कमलादेवी ने धीरे धीरे अपने जी को ठिकाने करके कहा-

"नहीं, बेटा! ऐसी बात मुंह से न निकालो, तुम सदा फूलो, फलो, प्रसन्न रहो; इसीसे मेरी आत्मा को, चाहे वह किसी लोक में जाय, सुख मिलेगा। बीरेन्द्र! तुमने जहांतक चाहिए, मेरी सेवा करने में कोई बात उठा न रक्खी थी, पर क्या करूं, मेरा भाग्यही ऐसा खोटा है कि उसने मुझे हरतरह से मिट्टी में मिला छोड़ा। यदि मैं यह जानती कि तुम्हें कष्ट होगा तो मैं अपने जी का हाल या उबाल कभी तुमसे न कहती। खैर, जो हुआ सो हुआ, अब तुम यह बतलाओ कि तुम्हें किस विपत्ति से सामना करना पड़ा था?"

इतना कहते कहते वह रुक गई, पर उनकी आंखों का आंसू