काशी से पिता की अन्तिम दशा का समाचार मुझे मिला, जिसे पाते ही मैं तुरन्त काशी चला गया और वहां जाकर पिता को बहुत ही मंद अवस्था मैंने देखो। निदान, कई दिन पोछे पिता ने वैकुण्ठ को प्रस्थान किया, जिससे जो कुछ दुःख मेरे हृदय को सहना पड़ा, उसे किसी तरह भी मैं नहीं कह सकता।"
कहते कहते बीरेन्द्र की आंखों से चौधारे आंसू बहने लगे, कुसुम तथा चम्पा की आंखों से भी नदियां उमड़ने लगी और कमलादेवी की तो उस समय वह अवस्था थी कि जिसका चित्र कलम द्वारा किसी तरह भी नहीं उतारा जा सकता। निदान, थोड़ी देर ठहरकर बोरेन्द्र फिर कहने लगे,-
"मां! पिता का शोक कैसा दुखदाई होता है, इसे वे ही जान सकते हैं, जिन्होंने कभी इस विपत्ति को भोगा हो! आखिर, उस समय मेरे पुरोहितजी ने मुझे बहुत कुछ धीरज दिलाया और मैं पिता का श्राद्ध आदि कर्म करके अपने चित्त को शान्त करने के लिये श्रीवृन्दावन की यात्रा को चला गया; किन्तु दो महीने से अधिक हुए कि मुझे श्रीवृन्दावन में मीरजाफरखां का एक पत्र मिला, जिसे पाते ही मैं वहांसे अपने देश को लौटा। उस पत्र में मीरजाफ़र खां ने बड़ा भयंकर संबाद लिखा था, अर्थात् मेरे पीछे मेरी बहिन को दुराचारी सिराजुद्दौला लूट ले गया था, किन्तु मेरे पहुंचने के पहिले ही मेरे मित्र मदनमोहन ने बहिन का उद्धार किया और उसके धर्म और सतीत्व की बड़ी वीरता से रक्षा की। यह ख़बर पाते ही मैं घर आया और बहिन से मिलकर और भली भांति कई तरह के प्रबन्धों को करके आपके दर्शन के लिए घर से चला और आजही यहां पहुंचा हूं। यद्यपि आपके दर्शन मिलने से मुझे बड़ा संतोष हुआ, किन्तु साथ ही इस बात का अत्यन्त दुःख भी हुआ कि मैं आपको इस अवस्था में देख रहा हूं!"
एक तो कमलादेवी मानसिक और शारीरिक व्याधि से मृत्यु के निकट पहुंच ही चुकी थीं; उस पर बीरेन्द्र का हाल सुनकर उन्हें इतना खेद हुआ कि जिसका लिखना बहुत ही कठिन है। बीरेन्द्र का हाल सुनकर उन्हें अपने ऊपर बीती हुई घटनाएं एक एक करके याद पड़ने लगों, जिससे उनकी वतमान दशा ने और भी भयकर रूप धारण किया! उस समय कुसुम दूसरे घर में मां के लिये