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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी



कुसुम ने सिर झुकाए हुए मुस्कुराकर कहा,-" पर उस हरजाई भौरे को इस बात पर जरा भी हया नहीं आती, कि वह कली कली का रस लेता फिरता है और चंपा की ओर तो भूलकर भी नहीं देखता।"

बीरेन्द्र ने मुस्कुराकर कहा,-" इसमें भौंरे का कुछ दोष नहीं है और यदि कुछ है तो वह बिल्कुल कुसुम ही का; क्योंकि उस बिचारे ने जब कि अपनी सारी हया कुसुम के हवाले कर दी तो फिर अब बेहए भौंरे का दोष है या हयादार कुसुम का!!! और फिर चंपा को भौंरे ने छोड़ रक्खा है, या उसे चंपा ने?"

यह एक ऐसी बात थी कि जिसे कुसुम अपने जी को हज़ार रोकने पर भी न रोक सकी और खिलखिला पड़ी; और उसके निराश चित्त में एकाएक आशा की नई लता लहलहा उठी। बीरेन्द्र के चित्त के भाव को न समझ कर, जो उसने इतनी ठोकरें खाई थीं; इसके लिये उसने मन ही मन अपनी हार स्वीकार की और सचमुच हाथ बढ़ाते ही उसने चांद को पा लिया! फिर उम्मने बात उड़ाने के मिस से कहा,-

"हां, तुम कल रंगपुर जाने की बात जो कहते थे, सो कब जाओगे?"

बीरेन्द्र ने इस प्रश्न के ढंग को समझ कर परिहास से कहा,-

"क्या, अब तुम्हें मेरा यहांका रहना भी नहीं सुहाता!"

इतना सुनते हो कुसुम झल्ला उठी और बोली,-" हाय,राम! तुम तो अब इस कदर मेरी बातों को छीलने लग गए हो कि मुझे बोलना भी कठिन होगया है।"

बीरेन्द्र ने कहा-" अच्छा, तो बहुत दिनों तक तुम्हें यह कठिनाई न झेलनी पड़ेगी। सुनो, कुसुम! मैं रंगपुर जिस काम के लिये जाया चाहता हूं, उसमें पहिले तुमसे सम्मति ले लेना बहुत आवश्यक है। देखो, तुम एक बड़े प्रभावशाली महाराज को कन्या हो। यद्यपि दुर्दिन ने तुम्हारे या तुम्हारे कुटुम्ब के साथ घोर अत्याचार करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी, किन्तु फिर भी, जबकि तुम्हारी माता तुम्हारा भार मुझे देनाई हैं, तो, मुझे यह उचित है कि,-"जैसे होसके, तुम्हें किसी राजा की रानी बनाऊं और तब जानूं कि,-"आज मैंने अपने एक प्रधान कर्त्तव्य का पालन भली