पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/५०

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(आठवां
 



भांति किया।' मेरी इच्छा है कि तुम्हारा विवाह रंगपुर के राजकुमार (अब महाराज) के साथ कर दूं, क्योंकि वे सब भांति से तुम्हारे योग्य है। वहां तुम बड़े सुख से रहोगी और तुम्हें सुखी देखकर मेरा हिया भी ठंढा होगा; और सबसे बढ़ कर सुख की वान नो तुम्हारे लिये यह होगी कि नरेन्द्रसिंह अभी तक क्वारे हैं और शायद तुम्हारे ऐसी स्वर्गीय देवी को पाकर वे फिर दूसरा विवाह करने की जन्मभर इच्छा ही न करें।”

बीरेन्द्र की इन बातों ने कुसुम की लहलही आशालता पर मानो बन घडग दिया। अब तक वह विचारी जिस बात के लिये कभी आशा करती थी और कभी निराशा; उस संशयात्मक आशा को बीरेन्द्र की बातों ने मानों बिल्कुल मिटा ही दिया। अब बतलाइए, पाठक! अनाधिनी कुसुम क्या करे? जो कुसुम बीरेन्द्र के अलावे और किसीको चाहती ही नहीं और जो वीरेन्द्र के न मिलने से अपनी जिन्दगी को जन्मभर कुमारी ही रह कर बिता देने के लिये मुम्नैद है; भला, बीरेन्द्र की बातों से उसकी क्या दशा हुई होगी! अस्तु, सुनिए,-उसने बीरेन्द्र की बातों से लाल पीली हो, क्रोध से भभक और त्योरी चढ़ाकर कहा,-

"भौरे की बेहयाई की बात, जो तुमने अभी कही थी, वह अब मुझे सची जान पड़ी। सनो जी! मरती बेला मां मेरा हाथ तुम्हें पकड़ा गई हैं, इसलिये अब तुम्हें इस बात का पूरा अधिकार है कि जिसे तुम चाहो, मुझे दे डालो; पर याद रक्खो, मेरे इस शरीर के डालने का अधिकार तुम्हें अवश्य है, कुछ मुझे जीती रखने का नहीं; क्यों कि इस बात को तुम निश्चय जानो कि यदि तुमने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरे विवाह के लिये उद्योग किया तो उसके पहिले ही मैं अपनी जान दे डालूंगी, या तुम्हारे घर से कहीं अपना काला मंह कर जाऊंगी; क्यों कि मेरी यह दृढ इच्छा है कि मैं बिवाह न करके सदा कुमारी ही रहकर अपनी जिंदगी बिता दूं।"

कहते कहते कुसुम की आंखों से चिनगारी झड़ने लगी और मारे क्रोध के वह थर थर कांपने लगी। उसकी इस अवस्था के मर्म को भली भांति समझ और मुस्कुरा कर बीरेन्द्र ने कहा,-

“सदा कुमारी रहने की बात तो तुम बिल्कुल झूठ कह रही हो। अभी जब कि तुम आप न जाने अपने किस चितचोर को