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(आठवां
हृदयहारिणी



से लगा लिया और कहा,-" प्यारी, कुसुम! जैसे सर्वस्व दान देकर बलि ने भगवान् श्रीबामनजी को सदा के लिये अपना रिनियां बना लिया था, वैसे ही तुमने भी आज अपना सर्वस्व देकर मुझे सदैव के लिये अपना बिना दाम का ---"

इसके बाद बीरेन्द्र जो 'शब्द'कहा चाहते थे, कुसुम ने उनका मुंह बंदकर उस शब्द का कहना रोक दिया।

बीरेन्द्र ने फिर कहा,-"प्यारी, कुसुम! सच्ची बात तो यह है कि अब तक मैं तुम्हें नाहक भूलभुलैयां में डालकर रुला रहा था; इसलिए कि तुम्हारे इस भाव को देख-देख-कर मुझे अपार आनन्द होता था; नहीं तो जिस दिन पहिले पहिल मैंने तुम्हें माला बेंचती हुई बाजार में देखा था, उसी दिन मैंने अपना मन बिना कुछ सोचे बिचारे ही-तुम पर निछावर कर दिया था; और क्यों, कुसुम! तुमने रंगपुर के महाराज से विवाह न कर मुझ सरीखे एक अदने सिपाही को क्यों पसंद किया, जो कि किसी भांति भी कृष्णनगरकी राजकन्या के योग्य बर नहीं होसकता?"

कुसुम ने प्रेम से गद्गद होकर कहा,-"प्राणनाथ! भला, जिन बातों से मेरे कलेजे में ठेस लगती हो, उन्हें बारम्बार दोहरा-तेहरा-कर कहने में तुम्हें कौनसा सुख मिलता है! तुम सच जानो, मैं धर्म की साक्षी देकर कहती हूँ कि मैं तुम्हारी पत्नी बन, तुम्हारे साथ बियाबान जंगल में जाकर कुटी में रहना बहुत अच्छा समझती हूं, पर किसी दूसरे कीरानी होकर राजप्रासाद में रहना नहीं चाहती।"

बीरेन्द्र ने कहा,-" प्रियतमे! आज मुझ सा भाग्यवान पुरुष कदाचित त्रैलोक्य में कोई भी न होगा!"

कुसुम,- "नहीं नहीं, यों नहीं, बरन यों कहना चाहिए कि आज मुझ सी बढ़भागिन स्त्री विधाता की सृष्टि में दूसरी न होगी!"

बीरेन्द्र,-"अच्छा, सुनो, मेरी इच्छा है कि मैं तुम्हें अब रंगपुर लेचलूं, क्योंकि मैं वहांके महाराज नरेन्द्रसिंह का सेनापति हूं, इसलिये बहुत दिनों तक राज्य से बाहर ही बाहर मैं नहीं रह सकता।"

कुसुम,-"तो मैंने कब नाहीं किया है? तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो, या मुझे जहां चाहो, लेचलो।”

इतने ही में वहां चम्पा पहुंच गई, इसलिये उन दोनों प्रेमियों