सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
परिच्छेद)
४६
आदर्शरमणी।


नवां परिच्छेद,
शुभ यात्रा।

"सुखं सदा हस्तगतं यशस्विनः।”


सार में जो पुरुष भाग्यवान होते हैं, वे ही यशस्वी भी कहलाते हैं; और जो यशस्वी हैं, जीवन का सच्चा सुख भी वे ही पाते हैं, तथा उनके संसर्ग से और लोग भी सुखी होते हैं; इसीसे संसार में भाग्य की बड़ी भारी महिमा है, अतएव जो भाग्यवान हैं, उनकी तो जूतियों से सुख लगा रहता है। तो जब बीरेन्द्र के भाग्य की बड़ाई हम किसी तरह कर ही नहीं सकते तो, फिर उनका साथ होने से कुसुम का भाग्य कैसा चमका, इसका बखान हम क्योंकर कर सकते हैं! तात्पर्य यह कि आज यदि हम बीरेन्द्र को कुसुम और कुसुम को बीरेन्द्र बन गया हुआ कहें, या कुसुम और बीरेन्द्र की युगलमूर्ति को आपस में मिलकर एक (दम्पति) मूर्ति बन गई हुई कहें तो अनुचित न होगा; किन्तु जो लोग कुसुम और बीरेन्द्र की दो पृथक मूर्ति देखते हों, उन्हें क्या इस कहावत पर संतोष न होगा कि आज वे दोनों, लोगों की दृष्टि में अलग-अलग दिखलाई पड़ने पर भी इस भांति आपस में मिल गए हैं, जैसे-'एक प्रान दो देह!'

एक दिन बीरेन्द्र ने शुभ मुहूर्त देख कुसुम को साथ लेकर रंगपुर की यात्रा की। एक बहुत ही सुहावने और बहुमूल्य रथ पर, जिसमें चार घोड़े जुते हुए थे, कुसुम के साथ बीरेन्द्र सवार हुए और दूसरे रथ पर चंपा चढ़ी। जिस समय मुर्शिदाबाद से बीरेंद्र ने कूच किया, हर्वे हथियारों से लैस दो सौ सवार, जिन्हें मीरजाफ़र खां ने साथ कर दिए थे, बीरेंद्र के आगे-पीछे चले। मार्ग में हवा से बातें करता हुआ बीरेंद्र का रथ उड़ा जाता था और वे कुसुम के साथ बातें करते हुए बड़े आनन्द के साथ चले जाते थे।

कुसुम ने कहा,-"क्यों जी! तुम तो अपने को रंगपुर के महाराज के सिपाही बतलाते थे, पर यह ठाठ, जिस ठाठ के साथ कि