"क्यों, महात्मा! अभीतक उन देवता के तो दर्शन हुए ही नहीं, जिन्हें बलि चढ़ाने के लिये मैं यहां लाई गई हूं!"
बीरेन्द्र ने नेहभरे नैनों से उसकी ओर निहारते हुए कहा,- "प्यारी, कुसुम! तुम्हारा अचल अनुराग मुझपर जानकर उदार-हृदय नरेन्द्र सिंह ने तुम्हें मुझीको देडाला!"
यों कहकर उन्होंने कुसुम का हाथ पकड़ना चाहा, पर उसने उनका हाथ झटक दिया और तिरछी होकर कहा,-"वाह! भला, मैं तुम्हें कब चाहती थी! मैं तो महाराज नरेद्रसिंह की ही दासी बनूंगी, न कि त्रैलोक्य में किसी और की!"
पाठकों को समझना चाहिए कि लवंगलता का इशारा पाकर बीरेन्द्र के सारे प्रपंचों को अब कुसुम भलीभांति समझ गई थी, इसीलिये उसने इस समय ऐसा उत्तर दिया और यों कहकर वह सिंहासन से नीचे उतर और बीरेद्र के सामने खड़ी हो, हाथ जोड कर कहने लगी,-
"चतुरचूड़ामणि! बस, अब आप अपनी चतुराई रहने दीजिए। अब आपकी माया मुझपर न चलेगी! हाय रे निर्दई, कपटी! तुझे जरा दया तो दूर रहे, लाज भी न आई कि जो तूने मेरे नन्हें से कलेजे पर कैसी कैसी चोटें पहुंचाईं! किन्तु हा!-निगोड़े हिये की जलन से मैं न जाने क्या क्या कह गई! इसलिये प्राणनाथ! दासी का अपराध क्षमा करना।”
यों कहकर वह बीरेन्द्र के चरणों पर गिरा ही चाहती थी कि उन्होंने उसे रोक लिया और कहा,-"प्यारी, कुसुम! मेरा दुष्टपन अपने मन से अब दूर कर दो। सचमुच बीरेन्द्र और नरेन्द्र कोई दो व्यक्ति नहीं हैं; किन्तु इस ढंग का परिहास मैं इसीलिये तुम्हारे साथ अब तक करता रहा कि इस परिहास से जितना तुम्हें दुःख होता था, उससे कड़ोर गुना अधिक मुझे सुख मिलता था। अस्तु, जाने दो; मेरी हृदयेश्वरी, हृदयहारिणी, प्यारी! तुम नरेन्द्र को छोड़कर संसार में और किसीकी भी मानसरंजिनी नहीं होसकती!"
पाठकों ने तो कदाचित लिखावट के ढंग से कुसुम के समझने के पहिले ही यह बात जान ली होगी कि बीरेन्द्र और नरेन्द्र कोई दो व्यक्ति नहीं हैं; और यह बात भी कदाचित पाठक भूले न होंगे कि बीरेन्द्र ने कमलादेवी से उनके मरने के समय अपना सच्चा