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५६
(दसवां
हृदयहारिणी।



हाल कह दिया था और आज हमने भी पाठकों के आगे सच सच कह दिया।

निदान, उस समय उस अनिर्वचनीय सुख की तरंगें इतने बेग से कुसुम के हृदय में क्रीड़ा करने लगी कि जिनका उफान उसकी आंखों से बह निकला, जिसे नरेन्द्र ने अपने पटुके के छोर से धीरे धीरे रोका और कहा,-"प्यारी! अब क्यों व्यर्थ खेद करती हो?"

कुसुम ने रुंधे हुए गले से कहा,-"प्राणनाथ! आज मेरे सुख की सीमा नहीं है! आज मैं समझती हूं कि मेरे समान बढ़भागिन त्रिलोक में भी कोई दूसरी न होगी। अहा, प्यारे! मुझ जैसी एक अनाथिनी, सदा की दुखिया, भिखारिन को तुमने अपनी पटरानी बनाया! प्रियतम! मैं जगदीश्वर से यही बर मांगती हूं कि मैं जनम-जनम तुम्हारे ही चरणों की दासी हुआ करूं!"

इतना कहते कहते कुसुम की आंखें फिर भर आईं, पर उस समय अवसर देखकर लवंगलता ने दो एक ऐसी बातें कहीं कि जिनसे वह कली की तरह खिल गई।

इतनी देर से लवंगलता चुपचाप खड़ी थी, पर उससे अब न रहा गया और बीरेन्द्र-नहीं, नहीं, नरेन्द्र की ओर देखकर उसने कहा,-"क्यों भैया! बतलाइए, इन्हें मैं अभी क्या कहकर पुकारूं?"

नरेन्द्र,-"जो तेरे जी में आवे।"

लवंगलता,-"तो मैं 'भाभी' कहकर पुकारूंगी (कुसुम की ओर देखकर) क्यों भाभी! यह बात ठीक है न? या जैसा आप मुझे सिखलादें!"

इतने ही में नरेन्द्र ने धीरे से कोई गुप्त बात कुसुम के कानों में कह दी, जिसका हाल लवंगलता को कुछ भी मालूम नहीं हुआ और चट कुसुम ने उसके जवाब में यों कहा,-"अच्छा, बीबी-रानी! पहिले तुम यह तो बतलाओ कि मैं बबुआ मदनमोहन को आज ही से 'नन्दोईजी' कहकर पुकारना क्यों न आरंभ कर दूं? ऐ, लो! भागी क्यों? सुनो, सुनो!!!"

पर फिर कौन सुनता कुसुम की इस बात के सुनते ही लवंगलता वहांसे भाग गई थी! फिर नरेन्द्र ने उसे बुलाकर कुसुम को उसके हवाले किया और आप अन्तःपुर से बाहर चले गए।