उनके जाते ही लवंगलता ने वहीं पहुंच कर कहा,-"भाभी! यह तुमने कैसे व्रत और ब्रह्मचर्य के करने की ठहराई है?"
कुसुम,-"एक बात कहूँ! मानोगी?"
लवंग,-"प्रान रहते तुम्हारी बात कभी न टालूंगी।"
कुसुम,-"तो मैं तुमसे हाथ जोड़कर यही मांगती हूं कि तुम मेरी इच्छा में बांधा न डालो और मुझे मेरी इच्छा के अनुसार काम करने दो।"
निदान, फिर लवंगलता ने इस पर विशेष कहना उचित न समझा। एक घंटे के बाद कुसुमकुमारी सिर से स्नान कर और रेशमी वस्त्र पहिर, भुवनेश्वरी के मन्दिर में गई: तब तक माधवसिंह ने उसकी इच्छा के अनुसार सारे प्रबंध कर लिये थे। पुरोहित जी भी उपस्थित थे और कई ब्राह्मण सम्पुट-सहस्त्रचण्डी-पाठ' के अनुष्ठान करने के लिये उपस्थित थे। 'एक सौ आठ' कुमारी कन्याएं भी उपस्थित थीं।
निदान, कुसुम ने नरेन्द्र के कल्याणार्थ संकल्प किया और अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। उस समय सब अपने अपने कामों में लग गए। ब्राह्मण सम्पुट पाठ करने लगे, पुरोहितजी उसकी देख भाल करने लगे, माधवसिंह तथा मदनमोहन कुमारियों और कंगलों के भोजन के प्रबंध में लगे और लवंगलता केवल कुसुम का मुंह निहारने लग गई!!!
दिन को जबतक ब्राह्मण पाठ करते, साक्षात् भगवती की भांति कुसुमकुमारी भुवनेश्वरी के सामने खड़ी खड़ी प्रतिमा के चरणों पर फूल चढ़ाया करती और तीसरे पहर जब पाठ समाप्त होता तो उन ब्राह्मणों को भोजन कराकर वह स्वयं पावभर कच्चा दूध पीलेती। फिर स्नान कर दो घंटे तक भगवती की पूजा करती और उसके बाद थोड़ी देर तक लवंगलता से बात चीत करके भूमि में चटाई पर सो रहती थी।
इसी प्रकार होते होते इकतीसवें दिन पुरश्चरण पूरा हुआ और बत्तीसवें दिन बड़े धूमधाम से हवन हुआ। उस दिन हवन में ही सारा दिन बीत गया था, इसलिये तेंतीसवें दिन अष्टोत्तरसहस्त्र ब्राह्मणों और उतनी ही कुमारियों को भोजन कराकर वस्त्र और यथोचित दक्षिणा दी गई और महा अनुष्ठान समाप्त हुआ।