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(सोलहवां
हृदयहारिणी।


आज पांचवीं जून है, संध्या का समय है, सहस्रचंडी यज्ञ समाप्त करके कुसुमकुमारी का चित्त बहुत ही शान्त और प्रसन्न है। यद्यपि वह आज एकमास से बराबर केवल पावभर दूध पीकर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहती है, जिससे शरीर बहुत ही दुबला होगया है, पर उसके मुख की कांति ऐसी देदीप्यमान होरही है कि जिस से आज वह कुमारी साक्षात पार्वती सी प्रतीत होरही है! यज्ञ के साङ्गोपाङ्ग समाप्त होने और हवन तथा ब्राह्मण भोजन आदि से निवृत्त होने पर भी वह अभी तक नियमित दूध ही पीकर रहती है

पांचवीं जून, संध्या के समय वह लवंगलता के साथ भुवनेश्वरी के मन्दिर में बैठी हुई बातें कर रही थी। उसने कहा,-"प्यारी, ननद! अभी मेरी बाईं आंख फड़क उठी!"

लवंग०,-"भाभी! इससे निश्चय जान पड़ता है कि भैया राज़ी खुशी अब आया ही चाहते हैं।"

कुसुम,-"भगवती करे, तुम्हारी बात सच्ची होजाय!"

इतने ही में चंपा ने पहुंचकर कहा,-"इनकी बात सच्ची हो गई, बीबी रानी! सरकार आगए! सवारी राजमन्दिर की ओर आ रही है!"

यह सुनते ही कुसुम ने उठकर पहिले भुवनेश्वरी को प्रणाम किया और फिर अपने गले में से एक बहुमूल्य मोतियों की माला उतार चंपा के गले में डालकर कहा,-

"चंपा! केवल इतना ही नहीं, तुम्हें मैं आज की बधाई में अभी बहुत कुछ दूंगी।"

चंपा,-"और मैं लूंगी भी!”

लवंग०,-"देखो! भाभी! तोपें सलामी उतारने लगीं; इसलिए चलो, ऊपर अटारी पर चलें!"

कुसुम,-"चलो, बीबी!"

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