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हृदय की परख

शब्द भी उसे याद थे―"जो मेरे लिये इस घर में जगह होती, तो क्या मैं मेहमान की तरह आपसे स्वागत कराती?" इसका क्या अर्थ? इसमें कोई रहस्य तो नहीं है? गृह-स्वामी बिलकुल बेचैन हो गए। कई बार मन में आया कि अभी चलकर शशि से पूछें कि बात क्या है, पर व्याह की भीड़-भाड़ में वैसा सुयोग न मिला। स्त्रियाँ उनकी स्त्री को घेरकर बैठी थीं, पुरुषों की भीड़ हो रही थी। वह मन-ही- मन छटपटाते रहे। वह रात जागते ही बीती। घटना ऐसी हृदयग्राही थी कि व्याह का काम न भी होता, तो भी उस रात कोई न सोता।

व्याह समाप्त हो गया। कन्या-दान हो चुका। मंगल गाने- वाली स्त्रियाँ जँभाइयाँ लेती हुई सोने चली गईं। वर- पक्ष के लोग मंडप से उठ गए। घर में कुछ सुनसान हुआ।

शशिकला उठकर खाट पर लेट गई। पर उससे दो मिनट भी न लेटा गया। उसने दासी को बुलाकर कहा―"बारी, मैं नहाउँगी। मेरा शरीर जला जाता है। मुझे चैन नहीं पड़ती। पानी की चरी तो उठा ला।"

दासी बोली―"रानीजी, इस कवेला में नहाने से तवि- यत खराब हो जायगा। कल से व्रत किया है। कुछ खाया नहीं है। खाली पेट होने से ऐसा हो रहा है। कुछ खा लो। हुक्म हो, तो कुछ ले आऊँ।"