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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१०१

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चौदहवाँ परिच्छेद

"कुछ नहीं, खाने के नाम जी मिचलाता है। जल्दी पानी ला। मैं गर्मी में जली जाती हूँ। न नहाने से दम निकल जायगा। देख तो, बाहर पानी है?"

दासी चली गई। पानी आ गया। शशिकला ने चौकी पर बैठकर दासी से कहा―"लोटा भर-भरकर ऊपर डाल।"

वेसा ही किया गया। कितने ही लोटे पड़ गए, पर शशि- कला ने पानी डलवाना बंद नहीं किया। दासी डरकर बोली― "अब बस करो रानी जी! इतना बहुत है। नहाने का यह समय भी तो नहीं है। कुछ जल-पान को लाऊँ?"

शशिकला बोली―"पानी और डाल, बड़ी चेंन मिलती है, डाले जा।"

इतने में बाहर से किसी के आने की आहट सुनाई दी। दासी ने देखा, गृह-स्वामी हैं। उन्होंने आते ही पूछा― "रानी कहाँ हैं? जागती हैं क्या?"

"वह नहा रही हैं?"

"नहा रही हैं? इस वक्त नहाने का क्या मौक़ा?"

"मैंने बहुत रोका कि जी न बिगड़ जाय, पर सुनती ही नहीं, पानी डलवाए ही जाती हैं।"

गृह-स्वामी भीतर आए। शशि ने देखते ही कपड़े से शरीर ढक लिया। उन्होंने कहा―"यह क्या? नहाने का यह क्या समय है?"