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हृदय की परख

शशि ने नीचे देखते-ही-देखते कहा―"गर्मी से शरीर जला जाता है।"

गृह-स्वामी ने शरीर से जो हाथ लगाया, तो वह जल रहा था। उन्होंने कहा―"अरे, तुम्हें तो बड़े वेग का ज्वर है! बारी, कहाँ गई? जल्दी आ।"

बारी दौड़ी-दौड़ी आई। स्वामी बोले―"इन्हें भीतर ले चल, ज्वर हो रहा है।"

बारी घबरा गई। शशिकला भीतर ले जाकर लिटा दी गई। स्वामी कुछ चिंतित होकर बाहर आए, पर किसी काम में फँस गए। आध घंटे बाद जाकर जो देखा, तो शशि बेहोश पड़ी है। प्रकृति बिगड़ रही है। बीच-बीच में कुछ अस्फुट प्रलाप-सा बकती है। मानो कोई भयंकर स्वप्न देख रही हो। रह-रहकर माथा सिकुड़ जाता है। होठ फड़क उठते हैं। पर वह नींद नहीं थी, भयकर बेहोशी थी। सचेत करने की सारी चेष्टाएँ व्यर्थ गईं। सुंदरलाल इनके अंतरंग सुहृद् थे। उन्होंने सारा हाल आकर उन्हीं से कहा। सुंदर बाबू घबराकर बोले―"ईश्वर ख़ैर करे। कल ही से उनका जी ठीक नहीं है। मैं वैद्य को अभी लिए आता हूँ।" इतना कहकर वह वैद्य को लेने चल दिए।

गृह-स्वामी रोगी की शय्या पर आ बैठे। रोगी अब भी घोर मूर्च्छित था।

थोड़ी देर में वैद्यजी आ पहुँचे। बड़ी देर तक नब्ज़ आदि