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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१०९

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चौदहवाँ परिच्छेद

यह क्या? तीन दिन पहले की आशंका आकर खड़ी हो गई।

इतने ही में सुंदरलाल गृह-स्वामी को साथ लेकर आ पहुँचे। उन्हें देखते ही शशि ने हाथों से अपना मुँह ढक लिया। गृह-स्वामी खाट पर बैठ गए, और बोले―"अब कैसा जी है?"

शशि ने कहा―"पापिनी, अपराधिनी, अब सदा के लिये जाती है, इसे क्षमा कर दो।"

स्वामी बोले―"ऐसी अधीरता क्यों?" उनकी आँखों में आँसू आ गए, पर साथ ही नर्मी भी उड़ गई।

शशिकला बोली―"स्वामी! मैं आपके चरणों की धूलि छूने के योग्य भी नहीं हूँ।"

वह चुप रहे, और कुछ देर में बोले―"यह लड़की कौन है?"

"मेरी पुत्री।"

"सो तो समझ गया, पर मैं तो इसे नहीं जानता।"

"यह आपकी औरस संतान नहीं है।"

गृह-स्वामी का शरीर काँपने लगा। पर उन्होंने धीरज से कहा―"यह भी समझ गया, पर यह यश कहाँ से कमाया है?"

"विवाह से प्रथम तुम्हारे मित्र भूदेव से मेरा प्रणय था। हम दोनो की परस्पर विवाह करके रहने की इच्छा थी। यही प्रतिज्ञा भी थी, पर उनके पिता ने जबरदस्ती हरिवंश-