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हृदय की परख

घर रहती थी। वह तो बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनकर इतराती आती―चंचलता और घमंड से अकड़कर बोलती; पर मैं उसे वैसे ही स्नेह से देखती। क्योंकि मुझे उसे देखते ही सदा मा की वह बात याद आती कि बेचारी के कोई नहीं है। मैं इस बात को तो स्वप्न में भी न समझ सकी कि अब यह मेरे मालिक की कन्या है।

"मेल बढ़ जाने से हम तीनो कभी-कभी गंगा की रेत में खेलते और किलकारियाँ मारते उछलते-कूदते फिरते थे; पर वह मुझसे अधिक उसी पर स्नेह दिखाते―उसी की ज़िद रहती। यह शायद उसके सुंदर रूप, बढ़िया वस्त्र और बड़े घर के कारण हो! पर इससे मैं ख़ुश ही होती। मैं मन-ही-मन कहती―अच्छा है, इस बेचारी के कोई नहीं है, इसका जी वह लेगा। वे दोनो बालू में बैठे हुए घर बनाया करते, और मैं पानी ला-लाकर उनके घर में डालती, या माला गूँथ-गूँथकर उन दोनों को पहनाया करती। ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती गई, त्यों-त्यों ये मिट्टी के खेल बंद होते गए, और नए-नए खेल निकलते गए। उन्हें चित्र-विद्या के अभ्यास की बड़ो धुन थी। वह जब चाहे कोयला, लकड़ी, पत्थर, गेरू जो हाथ लगता, उसे ही लेकर कभी दीवार पर, कभी धरती पर, कभी रेत पर और कभी कीचड़ में चिड़ियों, मछलियों और बंदरों के चित्र बनाया करते थे।"

इतना कहकर शारदा फिर मर्माहत होकर चुप हो गई।