पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१२५

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सोलहवाँ परिच्छेद

बात सुनकर मुझे उस पर ऐसी दया आ जाती कि मैं सारा मान भूलकर उलटा उसे ही मनाने लगती, और प्रसन्न रखती। पर फिर भी वह फूली ही रहती, और कभी दया या न्याय से न बर्तती। मुझे क्रोध तो आता, पर माता की वहा बात याद आ जाती―'अरे, इसका तो कोई भी नहीं है, यह कहाँ जाकर फ़रियाद करेगी?'

"एक दिन जाने क्या सेठजी के मन में आई, उन्होंने पिताजी से कहा कि 'तुम यह कन्या मुझे दे दो। मेरे कोई बालक नहीं है। मैं ही इसे पाल लूँगा―बड़ी ही सुंदर लड़की है।' जब पिताजी ने माता से सलाह की, तो उन्होंने कहा― 'हमें तो इसका सुख चाहिए। अच्छा है, कहीं रहे, सुखी रहे।'

"कन्या उन्हें दे दी गई। यही कन्या तुम्हारी मा शशि- कुला हैं।

"पिता के एक परम मित्र थे। वह राज्य में सरकारी नौकरी करते थे। वह बहुधा हमारे घर पिताजी से मिलने आया करते थे। उनके साथ उनका ११ वर्ष का पुत्र भी आता था।"

इतना कहकर शारदा चुप हो गई। उसकी आँखें मिच गईं, श्वास फूलने लगी। मानो कोई स्मृति उसे बड़ी वेदना दे रही हो। फिर एक श्वास लेकर वह कहने लगी―

"वह तो पिताजी से बात करने लगते, और वह बालक हमारे पास खेलने लग जाता। शशि भी बहुधा हमारे